Schools in Jhabua-Alirajpur are in huts and dilapidated buildings | झाबुआ-अलीराजपुर के स्कूल झोपड़ी-जर्जर भवनों में: 234 बिल्डिंग कंडम घोषित, कार्रवाई केवल 95 पर; बच्चे बोले- पता नहीं कब छत गिर जाए – Madhya Pradesh News

सीन 1: एक झोपड़ी में टाट पट्टी बिछी हुई है। इस पर 15 बच्चे बैठे हुए हैं। इन बच्चों को टीचर हिंदी वर्णमाला पढ़ा रहा है। स्कूल के भीतर गोबर की बदबू आ रही है, क्योंकि झोपड़ी से सटी हुई लकड़ी की दीवार के पास गाय-भैंस बंधी है।
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सीन 2: दो कमरों का प्राइमरी स्कूल है। स्कूल के एक कमरे में 25 बच्चे बैठे हैं, जो कविता पाठ कर रहे हैं। जिस कमरे में बच्चे बैठे हैं उसकी दीवारों में दरार है। छत का प्लास्टर उखड़ा हुआ है। फर्श भी धंस चुका है। दूसरे कमरे में छत के प्लास्टर का मलबा पड़ा है। छत से सरिए लटक रहे हैं।
अलीराजपुर के एक प्राइमरी स्कूल को लकड़ी की बल्लियों से बनाया है और उस पर टीन की छत बिछा दी है।
पहली तस्वीर अलीराजपुर जिले के एक सरकारी स्कूल की है और दूसरी तस्वीर उसी के पड़ोसी जिले झाबुआ के सरकारी स्कूल की है। दोनों आदिवासी बहुल जिलों में स्कूली शिक्षा के इसी तरह से हाल बेहाल है। वो भी तब जब सरकार ने स्कूल शिक्षा के लिए 2024-25 में 33 हजार 352 करोड़ रु. का बजट रखा है। इसमें भी 21 हजार करोड़ रु. तो प्राइमरी, मिडिल और हायर सेकेंडरी स्कूलों के लिए है।
दैनिक भास्कर ने जब इन दोनों जिलों में स्कूलों के हाल देखे तो पता चला कि पिछले एक दशक से यहां कुछ स्कूल झोपड़ी और टूटी फूटी जर्जर बिल्डिंग में संचालित हो रहे हैं। इन स्कूलों के बच्चों और टीचर्स से बात की तो उन्होंने कहा कि डर लगता है पता नहीं कब छत गिर जाए। ये भी कहा कि नए भवन के लिए कई बार चिट्ठी लिख चुके हैं, मगर कुछ नहीं हुआ। पढ़िए आदिवासी जिलों में किस तरह से स्कूली शिक्षा व्यवस्था के बुरे हाल है…

4 मामलों से समझिए अलीराजपुर जिले के स्कूलों के हाल

झोपड़ी में स्कूल, बगल में गाय-भैंस का तबेला
उमराली गांव जिला मुख्यालय अलीराजपुर से करीब 20 किमी दूर है। यहां पुजारा का फालिया में सरकारी स्कूल झोपड़ी में चलता है। स्कूल तक कच्चे रास्ते से होकर जाना पड़ता है। भास्कर की टीम जब यहां पहुंची तो एक टीचर 15-20 बच्चों को हिंदी पढ़ा रहे थे।
टीचर विजय चौहान ने बताया कि पिछले 9 साल से स्कूल इसी झोपड़ी में संचालित हो रहा है। बारिश के समय जब तेज हवा और आंधी चलती है तो लकड़ियों से बनी झोपड़ी हिलने लगती है। छत से पानी भी टपकता है, मगर क्या करें कोई विकल्प नहीं है। स्कूल की पक्की बिल्डिंग बने इसके लिए अधिकारियों को प्रस्ताव दिया था, मगर कुछ नहीं हुआ।

इस तरह से झोपड़ी में संचालित हो रहा है उमराली गांव के पुजारा फलिया का स्कूल।
जिस झोपड़ी में स्कूल चलता है वह किसाली बाई की है। वह कहती हैं कि स्कूल के लिए जमीन दी, लेकिन उसके एवज में कुछ नहीं मिला। मुझसे अधिकारियों ने कहा था कि स्कूल के लिए जमीन दे दो, तुम्हारी नौकरी भी लग जाएगी और बच्चों के लिए खाना भी बनाना, मगर कुछ नहीं हुआ।
वह बताती है कि मुझे कुछ नहीं मिला, लेकिन मैं ही स्कूल की साफ सफाई करती हूं। बच्चों के लिए पानी भर देती हूं। बच्चे पढ़ लिख जाए इसलिए मैं इतना करती हूं।

जरा सी हवा में टीन की छत हिलने लगती है
गेंद्रा गांव के कामता फालिया में भी झोपड़ी में स्कूल संचालित हो रहा है। यहां पहुंचने का रास्ता भी बेहद कठिन है, क्योंकि ये बीच जंगल में है। स्कूल के आसपास कोई रहवासी बस्ती नहीं है। लकड़ी के डंडों के सहारे खड़े स्कूल के चारों तरफ हरे रंग की जाली बिछा दी गई है।
यहीं पर पहली से पांचवीं क्लास तक के बच्चे पढ़ते हैं। छत को लोहे के टीन से बनाया गया है। गांव वाले कहते हैं कि जरा सी आंधी में टीन की छत हिलने लगती है। डर रहता है कि कोई दुर्घटना न हो जाए।

ग्रामीण बोले- नेता वोट मांगने आते हैं और चले जाते हैं
सोण्डवा के बोरवाला फलिया के स्कूल की खुद की कोई बिल्डिंग नहीं है। यह आंगनवाड़ी के एक कमरे में संचालित हो रहा है। स्कूल में केवल एक टीचर है और पहली से पांचवीं तक की क्लास के 40 बच्चे पढ़ते हैं। स्थानीय लोगों के मुताबिक पिछले 5 साल से स्कूल आंगनवाड़ी के कमरे में संचालित हो रहा है। इससे पहले 30 साल तक एक टीन शेड में संचालित होता था।
गांव के सिरमल भाई कहते हैं आसपास के स्कूल भी आंगनवाड़ी में संचालित हो रहे हैं। इनकी बिल्डिंग के लिए सरपंच के मार्फत सरकार को प्रस्ताव भेजा था लेकिन सरपंच ने ही आगे नहीं बढ़ाया। सिरमल कहते हैं कि हमें तो पढ़ने का मौका नहीं मिला, लेकिन हमारे बच्चों को मिलना चाहिए।
बच्चे पढ़ लिख जाएंगे तो कुछ बनेंगे, हमारे जैसे मजदूरी नहीं करेंगे। जब वोट मांगने का समय आता है तो सब नेता आ जाते हैं। स्कूल की तरफ कोई ध्यान नहीं देता।

बारिश में एक कमरे में पढ़ते हैं 48 बच्चे
डाबड़ी के प्राइमरी स्कूल में 48 बच्चे पढ़ते हैं। टीचर्स की संख्या 3 हैं। स्कूल की बिल्डिंग पक्की है और पांच कमरे हैं, मगर जर्जर हो चुकी है। छत से प्लास्टर टपक रहा है। सरिए बाहर दिखने लगे हैं। स्कूल में पढ़ने वाले बच्चे बताते हैं कि बारिश के समय चार कमरों की छत टपकने लगती है। सभी बच्चों को एक कमरे में बैठाकर पढ़ाया जाता है। स्कूल में पानी और शौचालय की व्यवस्था भी नजर नहीं आई।


अब तीन मामलों से जानिए झाबुआ जिले के स्कूलों के हाल

बच्चे बोले- पढ़ते वक्त डर लगता है
ये स्कूल सात बिल्ली नाम के फलिया में संचालित हो रहा है। तीन कमरों की बिल्डिंग में 95 बच्चे पढ़ते हैं। स्कूल की बिल्डिंग की हालत जर्जर है। दीवारों में दरारे हैं, छत से लोहे के सरिए बाहर आ गए हैं। बारिश में छत से पानी टपकता है। प्रशासन ने इसे कंडम घोषित कर दिया है।
इसके बाद भी यहां बच्चे क्यों पढ़ रहे हैं? इस सवाल के जवाब में टीचर केशव बुंदेला कहते हैं कि कोई ऑप्शन नहीं है। यहां आसपास कोई सरकारी भवन नहीं है। एक आंगनवाड़ी केंद्र है, मगर वहां भी पानी टपकता है। केशव कहते हैं कि 15 दिन पहले स्कूल को गिराने के आदेश आए थे, मगर कोई देखने नहीं आया।
इसी स्कूल में पढ़ने वाली 5वीं की छात्रा दिव्यानी कहती है कि पढ़ते वक्त डर लगता है। गांव के लोग कहते हैं कि बच्चों को पढ़ाना मजबूरी है क्योंकि हमारे वक्त तो कोई स्कूल नहीं था। अब जैसी भी परिस्थितियां हैं, हम बच्चों को पढ़ा रहे हैं।

दो कमरों का स्कूल, एक में छत का मलबा डला
झाबुआ जिले के जुलवानिया गांव के खाड़ा फालिया का प्राइमरी स्कूल दाे कमरों में चल रहा है। स्कूल में 41 बच्चे हैं और एक शिक्षक है। स्कूल के एक कमरे में बच्चे पढ़ते हैं, दूसरा कमरा खाली है। इस कमरे की छत पूरी तरह से जर्जर हो चुकी है। कमरे के अंदर भी टूटी छत का मलबा पड़ा है। फर्श धंस चुका है तो दीवारों पर दरारें हैं। इसके बाद भी इसे कंडम बिल्डिंग की लिस्ट में नहीं डाला गया है।

खाड़ा फलिया के स्कूल के छत का प्लास्टर उखड़ चुका है। ये गिरने की स्थिति में आ चुकी है।
स्कूल की टीचर रेणुका सलामे कहती हैं कि मुझे यहां डेढ़ साल हो चुका है। जब मैं यहां पहुंची थी तो स्कूल की बिल्डिंग की हालत ऐसी ही थी। इसके बाद अधिकारियों को 4-5 बार पत्र लिख चुकी हूं, मगर कोई सुध लेने वाला नहीं है। बारिश में स्कूल चारों तरफ पानी से घिर जाता है। तब मैं आंगनवाड़ी के शेड में बच्चों को पढ़ाती हूं। इस वजह से बच्चों की संख्या कम हो गई है। पहले 72 बच्चे रजिस्टर्ड थे अब केवल 41 हैं।

बारिश में एक कमरे में 100 बच्चे
इस तरह झाबुआ का गेलरबेड़ी स्कूल भी है। स्कूल बिल्डिंग जर्जर है। इसे भी कंडम घोषित किया गया है, लेकिन कार्रवाई नहीं हुई। इंदौर-अहमदाबाद हाईवे के किनारे बने स्कूल में दो कमरे हैं और बच्चों की संख्या 200 है। यानी एक कमरे में 100 बच्चे बैठते हैं।
स्कूल की टीचर अर्चना वर्मा कहती हैं कि बारिश के समय जब छत से पानी टपकता है तो बच्चों को किसी एक क्लास रूम में एडजस्ट करते हैं। स्कूल की बिल्डिंग को प्रशासन ने कंडम घोषित किया है, मगर अब तक कोई कार्रवाई नहीं की है। वे कहती हैं कि स्कूल में न तो पीने के पानी की व्यवस्था है और न ही अच्छे शौचालय की।



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