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Explainer: मुस्लिम महिलाओं के तलाक गुजारा भत्ते को लेकर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को क्यों कहा जा रहा लैंडमार्क 

Muslim women entitled to maintenance under CrPC: हैदराबाद हाईकोर्ट ने मोहम्मद अब्दुल समद को अपनी पूर्व पत्नी को दस हजार रुपये अंतरिम गुजारा भत्ता देने के लिए आदेश दिया था. लेकिन अब्दुल समद ने इसको चुनौती दी. उनके वकील का कहना था मुस्लिम महिला (विवाह विच्छेद पर अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 1986 के चलते तलाकशुदा मुस्लिम महिला दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC) की धारा 125 के तहत गुजारा भत्ता नहीं ले सकती. लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इस दलील को खारिज कर दिया. सुप्रीम कोर्ट ने अपने ऐतिहासिक फैसले में कहा कि महिलाएं चाहे उनकी आस्था कुछ भी हो, सीआरपीसी की धारा 125 के तहत भरण पोषण की हकदार हैं. 

जस्टिस बी. वी. नागरत्ना और जस्टिस जॉर्ज मसीह की पीठ ने कहा कि यह मुस्लिम महिला को तय करना है कि उसे दोनों कानूनों या दोनों में से किसका सहारा लेना चाहिए. जस्टिस नागरत्ना ने कहा, “गुजारा भत्ता जेंडर इक्विलिटी का एक पहलू है और समानता को सक्षम बनाता है, यह दान नहीं है.” सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि सीआरपीसी की धारा 125 मुसलमानों सहित सभी विवाहित महिलाओं पर लागू होती है. यह प्रावधान लागू व्यक्तिगत कानूनों के बावजूद कमजोर वर्गों की रक्षा के लिए सामाजिक न्याय के लिए एक उपाय था. जस्टिस मसीह ने कहा कि तलाकशुदा मुस्लिम महिला के लिए रखरखाव की मांग करने का अधिकार सुनिश्चित करने के लिए दोनों के तहत गुजारा भत्ता का अधिकार समानांतर रूप से मौजूद हैं. 

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क्या कहा सुप्रीम कोर्ट ने
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि संसद ने कभी भी तलाकशुदा मुस्लिम महिला के अधिकारों को ‘इद्दत’ अवधि तक सीमित करने की मांग नहीं की. हम यह निष्कर्ष निकालने के लिए इच्छुक हैं कि सीआरपीसी 1973 की धारा 125 के धर्मनिरपेक्ष प्रावधान और 1986 अधिनियम की धारा 3 के व्यक्तिगत कानून प्रावधान, दोनों के तहत सुनिश्चित रखरखाव के समान अधिकार समानांतर रूप से मौजूद हैं. 1986 के अधिनियम के लागू होने के बावजूद सीआरपीसी 1973 के प्रावधानों के तहत तलाकशुदा मुस्लिम महिला के लिए गुजारा भत्ता मांगने के अधिकार का बना रहा. जस्टिस मसीह ने कहा कि संसद ने कभी भी तलाकशुदा मुस्लिम महिला के अधिकारों को ‘इद्दत’ अवधि तक प्रतिबंधित करने की मांग नहीं की. ‘इद्दत’ उस समयावधि को कहते है जिसके लिए एक मुस्लिम महिला को तलाक के मामले में तीन महीने तक इंतजार करना पड़ता है.

क्या था शाहबानो मामला
सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले की तुलना शाह बानो मामले से की जा रही है. शीर्ष अदालत ने आदेश दिया था कि बुजुर्ग और गरीब तलाकशुदा शाह बानो को 125 रुपये प्रतिमाह भरण-पोषण दिया जाए. साल 1985 में इंदौर की शाह बानो ने गुजारे भत्ते के लिए सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया था. सुप्रीम कोर्ट ने शाह बानो के हक में फैसला सुनाया और उनके पति मोहम्मद अहमद खान को सीआरपीसी की धारा 125 के तहत गुजारा भत्ता देने का आदेश दिया. 

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राजीव गांधी लेकर आए नया कानून
सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले का मुस्लिम समुदाय के कट्टरपंथियों की ओर से विरोध शुरू हो गया. उस समय राजीव गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार केंद्र में सत्ता में थी. राजीव गांधी की सरकार कट्टरपंथियों के सामने झुक गई. सरकार सुप्रीम कोर्ट के फैसले को असरहीन करने के लिए मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकारों का संरक्षण) कानून, 1986 लेकर आई. उस सरकार ने अल्पसंख्यकों के तुष्टिकरण के लिए सर्वोच्च अदालत के फैसले को पलट दिया.      

इद्दत पर क्या कहा शीर्ष अदालत ने
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि सीआरपीसी की धारा 125 1986 के कानून की धारा 3 की तुलना में महिलाओं के लिए अधिक फायदेमंद है. क्योंकि एक तलाकशुदा मुस्लिम महिला को 1986 के कानून के तहत लेकिन धर्मनिरपेक्ष प्रावधान के तहत उसके पति द्वारा ‘इद्दत’ अवधि के भीतर गुजारा भत्ता दिया जाता है. कोई भी तलाकशुदा पत्नी फिर से विवाह होने तक भरण-पोषण की हकदार है. पर्सनल लॉ के तहत, बच्चों के लिए भरण-पोषण उसके पूर्व पति द्वारा केवल दो साल की अवधि के लिए दिया जाता है, लेकिन धारा 125 के तहत, बच्चों के वयस्क होने तक भरण-पोषण दिया जाता है.

Tags: Muslim, Muslim Woman, Rajiv Gandhi, Supreme Court, Supreme court of india


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एडवोकेट अरविन्द जैन

संपादक, बुंदेलखंड समाचार अधिमान्य पत्रकार मध्यप्रदेश शासन

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