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Sanskrit Endangered: सोशल मीडिया पर संस्कृत भाषा के विलुप्त होने का दावा किया जा रहा है. लेकिन इस तरह को कोई भी दावा गलत है. सरकार इसके संरक्षण के लिए लगातार प्रयासरत है.
आज भी भारत और दुनिया भर के कई विश्वविद्यालयों में संस्कृत की पढ़ाई होती है.
हाइलाइट्स
- सोशल मीडिया पर संस्कृत के विलुप्त होने का दावा गलत है
- भारत सरकार संस्कृत के संरक्षण के लिए लगातार प्रयासरत है
- संस्कृत को सरकारी मदद ऐतिहासिक महत्व के कारण मिलती है
यह सच है कि संस्कृत भारत की सबसे पुरानी और मूल भाषा है. लेकिन इसका उपयोग करने वाले लोगों की संख्या बहुत कम हो गई है. जिससे यह भाषा विलुप्त होने की कगार पर है. इस तरह के दावों को कई बार ऐतिहासिक और धार्मिक संदर्भों से जोड़कर भावनात्मक रूप से भी पेश किया जाता है. यह सच है कि संस्कृत का उपयोग आम बोलचाल की भाषा के रूप में कम हो गया है. लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि यह विलुप्त हो रही है.
क्या चल रहा सोशल मीडिया पर
सोशल मीडिया पर जो चल रहा है उसके अनुसार भारत की जनगणना मार्च 2027 तक पूरी हो जाएगी. जनगणना अधिकारी जल्द ही आपके पास आकर जानकारी इकट्ठा करेंगे. जब आपसे आपकी मातृभाषा के बारे में पूछा जाए और फिर उन भाषाओं के बारे में पूछा जाए जिन्हें आप जानते हैं, तो कृपया उन भाषाओं में ‘संस्कृत’ भी शामिल करें. भले ही हर कोई संस्कृत नहीं बोल सकता, लेकिन हम निश्चित रूप से इसका उपयोग रोजाना पूजा-पाठ, मंत्रोच्चारण, श्लोक, और धार्मिक अनुष्ठानों में करते हैं. पिछली जनगणना के अनुसार पूरे देश में संस्कृत बोलने वालों से ज्यादा अरबी और फारसी भाषा बोलने वाले लोगों की संख्या थी. उन्हें सरकार से अनुदान और सहायता भी मिलती रहती है.
इसे हमेशा के लिए खो सकते हैं
सोशल मीडिया पर यह भी कहा जा रहा है कि अगर संस्कृत को ‘विलुप्त हो चुकी भाषा’ घोषित कर दिया जाता है, तो हमारे प्राचीन ग्रंथ, वेद, पुराण आदि का प्रकाशन बंद हो जाएगा. हम अपनी जड़ों से कट जाएंगे. अंततः हमारी पूजा-पाठ की परंपराएं सिर्फ डीजे बजाने तक सीमित हो जाएंगी. इस भाषा को जीवित रखना हम सबकी जिम्मेदारी है. अगर संस्कृत को ‘विलुप्त’ घोषित कर दिया जाता है, तो इसके विकास और विस्तार के लिए कोई सरकारी फंड या सहायता नहीं मिलेगी. हम इसे हमेशा के लिए खो सकते हैं. संस्कृत को सिर्फ हमारा सचेत प्रयास ही जीवित रख सकता है.
आधिकारिक आंकड़े
भारत की जनगणना के अनुसार संस्कृत बोलने वालों की संख्या भले ही कम हो. लेकिन यह पूरी तरह से विलुप्त नहीं हुई है. 2011 की जनगणना के अनुसार भारत में लगभग 24,821 लोग संस्कृत को अपनी पहली भाषा के रूप में बोलते है. हालांकि यह संख्या बहुत कम है, लेकिन इसमें पिछले कुछ सालों से बढ़ोतरी भी देखी गई है. 2001 की जनगणना में यह संख्या 14,135 थी. कुछ गांव और कस्बे, जैसे उत्तराखंड में डिम्मर गांव, कर्नाटक में मत्तूर और मध्य प्रदेश में झिरी ऐसे भी हैं जहां लोग दैनिक जीवन में संस्कृत का उपयोग करते हैं. संस्कृत केवल एक भाषा नहीं है, बल्कि यह एक सांस्कृतिक और धार्मिक धरोहर भी है. भारत सरकार और कई गैर-सरकारी संगठन इसके संरक्षण के लिए कई प्रयास कर रहे हैं.
आज भी भारत और दुनिया भर के कई विश्वविद्यालयों में संस्कृत की पढ़ाई होती है. कई राज्यों में संस्कृत को स्कूलों में एक अनिवार्य या वैकल्पिक विषय के रूप में पढ़ाया जाता है. भारत में कई विश्वविद्यालय हैं जो संस्कृत के लिए समर्पित हैं. जैसे उत्कल विश्वविद्यालय और राष्ट्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय. इन जगहों पर संस्कृत के विभिन्न पहलुओं पर शोध और शिक्षण होता है. शिक्षा मंत्रालय और संस्कृत विश्वविद्यालय जैसे संस्थान संस्कृत के प्रचार-प्रसार और शोध के लिए विशेष रूप से काम करते हैं, जिनके लिए बजट का प्रावधान अलग से किया जाता है. संस्कृत के संरक्षण और विकास के लिए कई सरकारी और गैर-सरकारी संस्थान काम कर रहे हैं. इन संस्थानों को सरकार द्वारा अलग से अनुदान दिया जाता है.
जनगणना का मुख्य उद्देश्य देश की जनसंख्या, सामाजिक-आर्थिक स्थिति, शिक्षा और भाषाओं की जानकारी एकत्र करना है. यह डेटा सरकार को नीतियां बनाने और विभिन्न क्षेत्रों में विकास के लिए योजनाएं बनाने में मदद करता है. जनगणना में लोगों से उनकी मातृभाषा और अन्य भाषाओं के बारे में पूछा जाता है. मातृभाषा वह भाषा है जिसे व्यक्ति बचपन से बोलता आ रहा है या जिसकी पहचान वह अपनी मूल भाषा के रूप में करता है. यह सच है कि किसी भी भाषा को मिलने वाली मदद और उसके प्रचार-प्रसार के लिए सरकार जनगणना के आंकड़ों को एक महत्वपूर्ण आधार मानती है. अगर किसी भाषा को बोलने वालों की संख्या बहुत कम होती है, तो उस भाषा के लिए विशेष योजनाएं बनाने की आवश्यकता पर जोर दिया जा सकता है.
किसी भाषा को मिलने वाला अनुदान केवल उस भाषा को बोलने वालों की संख्या पर ही निर्भर नहीं करता है. सरकारी अनुदान और नीतियां कई अन्य कारकों पर भी आधारित होती हैं, जैसे ऐतिहासिक और सांस्कृतिक महत्व. संस्कृत का भारत में एक ऐतिहासिक और सांस्कृतिक महत्व है. यह केवल बोलचाल की भाषा नहीं है, बल्कि धार्मिक ग्रंथों, वेदों और साहित्य की भाषा भी है. भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची में कई भाषाओं को सूचीबद्ध किया गया है, जिन्हें आधिकारिक मान्यता प्राप्त है. संस्कृत भी इस सूची में शामिल है. संस्कृत को बढ़ावा देने के लिए डिजिटल माध्यमों का उपयोग किया जा रहा है. सरकार ने ऑनलाइन पाठ्यक्रम और सामग्री उपलब्ध कराई है.
किसी भाषा को ‘विलुप्त’ घोषित करने का निर्णय मुख्य रूप से उस भाषा को बोलने वाले लोगों की संख्या और उनके उपयोग के आधार पर लिया जाता है. यह एक जटिल प्रक्रिया है और इसके लिए विभिन्न अंतरराष्ट्रीय संगठन जैसे कि यूनेस्को कुछ मानदंड तय करते हैं. यूनेस्को ने भाषाओं को खतरे के आधार पर वर्गीकृत किया है. ‘विलुप्त’ श्रेणी सबसे अंतिम है. किसी भाषा को विलुप्त तब माना जाता है जब कोई भी व्यक्ति उस भाषा को अपनी मातृभाषा के रूप में नहीं बोलता है. न ही कोई नई पीढ़ी उसे सीख रही होती है, तो उसे विलुप्त माना जाता है. दुर्भाग्य से भारत में कई भाषाएं विलुप्त हो चुकी हैं या विलुप्त होने की कगार पर हैं.
दावे में नहीं है दम
इसलिए यह दावा कि जनगणना में संस्कृत को पहली भाषा न बताने पर सरकारी मदद पूरी तरह से खत्म हो जाएगी, अतिशयोक्तिपूर्ण और भ्रामक है. जबकि जनगणना के आंकड़े किसी भाषा की स्थिति को दर्शाते हैं. संस्कृत को मिलने वाली सरकारी मदद केवल इन आंकड़ों पर आधारित नहीं है. संस्कृत का ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और धार्मिक महत्व इतना अधिक है कि सरकार और समाज दोनों ही इसे जीवित रखने के लिए प्रतिबद्ध हैं. यह संवैधानिक रूप से मान्यता प्राप्त भाषा है और इसके लिए विशेष रूप से बजट आवंटित किया जाता है.
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