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सुनील शर्मा, देवरिया के बैकुंठपुर गांव के लोहार, ने शहरों में मजदूरी के बाद अपने गांव लौटकर पारंपरिक लोहे की दुकान को पुनर्जीवित किया और टिकाऊ औजार बनाकर अच्छी आमदनी कमा रहे हैं.
लोहार सुनील शर्मा
हाइलाइट्स
- सुनील शर्मा ने गांव लौटकर लोहे की दुकान पुनर्जीवित की.
- पारंपरिक तरीकों से टिकाऊ औजार बनाकर अच्छी आमदनी कमा रहे हैं.
- सुनील की कहानी मेहनत और आत्मसम्मान की मिसाल है.
देवरिया: देवरिया के बैकुंठपुर गांव में हथौड़े की ठन-ठन से सुबह की शुरुआत होती है. यह आवाज बताती है कि सुनील शर्मा अपने काम में लग चुके हैं. लगभग 35 वर्षीय सुनील एक साधारण लोहार हैं, लेकिन उनकी कहानी असाधारण है.
सुनील का जन्म एक पारंपरिक लोहार परिवार में हुआ. उनके पिता सालों से गांव में लोहे के औज़ार बनाते आ रहे थे जैसे हल, फावड़ा, हंसिया, और किसान के खेत का हर जरूरी औजार. लेकिन जैसे-जैसे समय बदला, गांव के युवा शहरों की ओर पलायन करने लगे. सुनील भी उसी भीड़ में शामिल हो गए. वे पंजाब और गुजरात जैसे राज्यों में मजदूरी करने गए, ईंट-गारा से लेकर फैक्ट्रियों में काम किया, लेकिन हर महीने जो कमाते, वह पेट भरने और किराया चुकाने में ही खत्म हो जाता. हालत यह थी कि महीने का 15 हजार रुपये भी नहीं बचा पाते थे.
एक फैसले ने बदली जिंदगी
कुछ सालों बाद सुनील ने एक दिन फैसला लिया कि वापस घर लौट जाना चाहिए. जहां पिता की बूढ़ी आंखें और बंद पड़ी दुकान उन्हें पुकार रही थी. वापस लौटकर उन्होंने अपनी पारंपरिक लोहे की दुकान को फिर से ज़िंदा किया. बिना किसी सरकारी सहायता के, खुद के ही दम पर पारंपरिक तरीकों और पुरानी मशीनों की मदद से काम शुरू किया. आज भी वे बिजली से चलने वाली आधुनिक मशीनों की जगह हाथ से चलने वाले औजारों और परंपरागत तकनीकों का ही इस्तेमाल करते हैं.
उन्हें सरकार की तरफ से कोई मदद नहीं मिली, न कोई योजना, न प्रशिक्षण, न सब्सिडी. जिसको लेकर सुनील ने कहा कि सरकार केवल कागज़ों में योजनाएं चलाती है, जमीन पर हमारे जैसे कारीगरों तक कुछ नहीं पहुंचता.
लोगों की पसंद बनें सुनील
आज हालत यह है कि बैकुंठपुर से तीस किलोमीटर दूर तक के इलाके से लोग सुनील शर्मा के पास अपने औज़ार बनवाने या मरम्मत कराने आते हैं. किसान उनके औजारों की टिकाऊपन की तारीफ करते नहीं थकते. सुनील अब रोज़ाना 1000 से 1500 रुपये तक की आमदनी में से अच्छी खासी बचत कर लेते हैं — वह भी अपने परिवार के पास रहकर, बिना किसी किराए या तंगी के.
सुनील की कहानी हमें यह सिखाती है कि कभी-कभी दूर जाकर नहीं, बल्कि अपनी जड़ों से जुड़कर ही सच्ची तरक्की मिलती है, जहां हुनर, मेहनत और आत्मसम्मान तीनों का मेल होता है.
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