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महालक्ष्मी व्रत भाद्रपद शुक्ल पक्ष की अष्टमी यानी राधा अष्टमी से प्रारंभ होता है और आश्विन मास की कृष्ण पक्ष की अष्टमी तक चलता है। इस दिन लक्ष्मीजी की पूजा का विधान है। लक्ष्मीजी की मूर्ति को स्नान आदि कराए जाते हैं, नैवेद्य लगाया जाता है, धूप, दीप,
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एरोड्रम क्षेत्र में दिलीप नगर स्थित शंकराचार्य मठ के अधिष्ठाता ब्रह्मचारी डॉ. गिरीशानंदजी महाराज ने यह बात मंगलवार को अपने नित्य प्रवचन में कही।
इस प्रकार ब्राह्मण का मनोरथ हुआ पूर्ण
महाराजश्री ने एक कहानी सुनाई। प्राचीन काल में एक निर्धन ब्राह्मण था। वह अपने गांव के समीप जंगल में बने भगवान विष्णु के मंदिर में नियमित जाकर पूजा करता था। इस पर भगवान प्रसन्न हो गए। उसे साक्षात दर्शन दिए। भगवान ने उसे लक्ष्मी प्राप्त करने का उपाय बताया। भगवान ने बताया, प्रातः मंदिर के सामने एक स्त्री उपले थापने आती है। तुम सुबह आकर उसे आग्रहपूर्वक अपने घर ले जाना। जब तक वह तुम्हारे घर जाने को तैयार न हो तब तक तुम उसे मत छोड़ना। वह मेरी पत्नी लक्ष्मी है। उसके तुम्हारे घर आते ही तुम्हारा घर धन-धान्य से परिपूर्ण हो जाएगा। यह कहकर भगवान विष्णु अंतर्ध्यान हो गए।
दूसरे दिन ब्राह्मण मंदिर के सामने सुबह 4 बजे जाकर बैठ गया। जैसे ही लक्ष्मीजी उपले थापने आई, ब्राह्मण ने उनके चरण पकड़ लिए और अपने घर चलने की प्रार्थना करने लगा। लक्ष्मीजी सब समझ गईं, यह विष्णुजी का ही खेल है। लक्ष्मीजी ने कहा तुम अपनी पत्नी के साथ 16 दिन मेरा व्रत करो। सोलहवें दिन रात्रि को चंद्रमा का पूजन कर उत्तर दिशा में देख मुझे पुकारना, तब तुम्हारा मनोरथ पूर्ण होगा। ब्राह्मण ने ऐसा ही किया। जब चंद्रमा की पूजा करके उसने उत्तर दिशा में लक्ष्मीजी को पुकारा तो उन्होंने अपना वचन पूरा किया। इस प्रकार यह व्रत महालक्ष्मी के नाम से प्रसिद्ध है। कहीं-कहीं 16 गेहूं के दाने लेकर एक-एक दाना 16 बार यह कहकर समर्पित करते हैं कि पोरापुर पट्टान गांव को मंगल सेन राजा, मोती दा मोती रानी, बम्मन बरुआ कहे कहानी, सुनो हो महालक्ष्मी देवी रानी, हमने कहती तुमसे सुनती, सोलह बोल की एक कहानी।
इस व्रत के बारे में भगवान कृष्ण ने युधिष्ठिर से कहा था। गांधारी, कुंती ने व्रत किया। गांधारी के पुत्रों ने लक्ष्मी बिठाने के लिए मिट्टी का बहुत बड़ा हाथी बनाया और पूरे नगर को निमंत्रित किया, पर कुंती को नहीं बुलाया। पांडवों से कुंती बोली बिना हाथी के यह पूजा कैसे करूं तो अर्जुन ने इंद्र से ऐरावत बुलवा लिया। नगरवासियों को यह बात पता चली तो वे कुंती के यहां जाकर पूजा करने लगे।
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