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जब हमारी अर्थव्यवस्था मजबूत थी तब दुनियाभर के लोग यहां आए। इसी तरह एक दौर आया जब हमारे अच्छे प्रोफेशनल अमेरिका जाने लगे। ये तो मानवीय स्वभाव है। 1978 में 100 लोग विदेश जाते थे उनमें से सिर्फ एक ही लौटता था। अब ज्यादातर लोग कुछ समय बाद लौटने लगे है। य
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यह कहना हैं इंफोसिस फाउंडेशन की अध्यक्ष व राज्यसभा सदस्य सुधा मूर्ति का। रविवार को वे डेली कॉलेज में आयोजित फिक्की फ्लो के कार्यक्रम में शामिल हुई।
उन्होंने कहा कि बच्चों की हर जिद पूरी करने के बजाय उन्हें हकीकत से रूबरू कराना बहुत जरुरी है। हमारे बच्चे जब किसी फाइव स्टार होटल में हुई दोस्त की बर्थडे पार्टी से लौटते तो हम उन्हें बस्तियों में ले जाते और बताते कि यहां उनसे भी अधिक टैलेंटेड बच्चे रह रहे है।
उन्हें खुद ही महसूस होने लगा कि होटल में हजारों रुपए खर्च करने से बेहतर है इनके सुधार के लिए प्रयास किया जाए। सवाल-जवाब सेशन में एक सवाल के जवाब में उन्होंने कहा कि
जब पति गुस्सा करे तो आप (पत्नी) बर्फ की तरह शांत रहें। जब आप गुस्से में हो तो पति शांत रहे। दोनों गुस्से में रहे और झगड़ा होगा तो बात बिगड़ जाएगी।
पहले 3 फिर 6 घंटे किया काम
मैं सिर्फ ये कहती हूं कि मुझे जो काम मिला उसे अच्छे से किया। हर इंसान में पोटेंशियल है। खासतौर से महिलाओं में तो पुरुषों से ज्यादा क्षमता होती है क्योंकि वे घर और बाहर दोनों मोर्चे पर काम करती हैं। वर्क लाइफ बैलेंस पर सुधा मूर्ति ने कहा, हमें अपने आप को हमेशा व्यस्त रखना चाहिए। जब मैं काम नहीं करती तब लिखने पर ध्यान दिया। बच्चों को संभालने के लिए पहले दिन में सिर्फ 3 घंटे काम किया और बाद में 6-6 घंटे काम करने लगी। कई लोग मानते है कि शुरुआत एक सही समय पर ही की जा सकती है।
राइटिंग इज एन एक्सप्रेशन ऑफ माय इनर थॉट्स
मेरी मां स्कूल टीचर थी। हम तीन बहनें और एक भाई के बीच मां सिर्फ मुझे ही 25-25 लाइनें लिखने को कहती। शुरू में मुझे अच्छा नहीं लगा फिर मजा आने लगा। एक दिन मां से पूछा कि लिखने का काम सिर्फ मुझे क्यों? तब पता चला कि उस दौर में लड़कियां कुकिंग, सिलाई, कड़ाई, म्यूजिक, पेंटिंग सीखती थी।
मेरा इंट्रेस्ट इनमें किसी में नहीं था। 29 साल की उम्र में मेरी पहली किताब आई और 44 साल में सिर्फ 46 ही किताबें लिखी है। ये किताबें सिर्फ कन्नड़ और अंग्रेजी में है। बाकी भाषाओं में इन्हीं का ट्रांसलेशन उपलब्ध है। लेखन में मातृभाषा बहुत महत्वपूर्ण है।
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