मध्यप्रदेश

The story of the struggle of 5 children who were child laborers | बाल श्रमिक रहे 5 युवाओं के संघर्ष की कहानी: पन्नी बीनने वाली बिंदिया कर रही लॉ की पढ़ाई; होटल की ‘छोटू’ मनीषा का वर्दी पहनने का सपना – Madhya Pradesh News

‘मैं बचपन में पन्नी बीनने का का काम करती थी। एक दिन पुलिस ने चोरी के शक में पकड़ लिया। सारी रात पुलिस स्टेशन में गुजारी। उस दिन मैंने तय किया था कि निचले तबके के लोगों के लिए अधिकार की लड़ाई लड़ूंगी।’

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ये कहना है बिंदिया का। राजधानी भोपाल की गौतम नगर की झुग्गी बस्ती से निकली बिंदिया आज वकालत की पढ़ाई कर रही है। ऐसी ही कहानी मनीषा कुंवर की है, जिसने 14 साल की उम्र में ही परिवार की जिम्मेदारी संभाली। उसका सपना पुलिस सेवा में जाने का है।

कम उम्र में परिवार की जिम्मेदारी संभालने वाली बिंदिया और मनीषा कुंवर जैसे कई युवा हैं, जिनका बचपन जिम्मेदारियों के बोझ तले खत्म हो गया, लेकिन इन्होंने अपने सपनों को खत्म नहीं होने दिया। दैनिक भास्कर ने ऐसे युवाओं से बात की जो बाल श्रमिक रहे और अब छोटा-मोटा काम कर अपने सपनों को पूरा करने में जुटे हैं। पढ़िए रिपोर्ट…

पहली कहानी..

पुलिस की वर्दी पहनकर पिता के सपने को पूरा करना है: मनीषा

मनीषा की उम्र 18 साल है। उसने इसी साल 12वीं पास की है। वह परिवार का खर्च चलाने के लिए एक दुकान पर काम करती है। भास्कर से बात करते हुए मनीषा बोलीं- जब मेरी उम्र कम थी तब एक होटल में काम करती थी।

वह कहती है कि मेरा बचपन मुश्किलों में गुजरा है। हम चार बहनें हैं। जब पिता को पैरालिसिस हुआ तो 14 साल की उम्र में ही मुझे घर ​​​​की जिम्मेदारी संभालना पड़ी। मैंने एक होटल में काम करना शुरू किया। सुबह के वक्त स्कूल जाती थी और फिर काम पर।

मनीषा कहती हैं कि जब अपनी उम्र के बच्चों को खेलते हुए देखती थी तो बुरा लगता था, लेकिन इग्नोर करती थी। एक साल तक होटल में काम करने के बाद कपड़े की दुकान पर काम किया। 12वीं की परीक्षा के कारण मुझे काम छोड़ना पड़ा। छोटे-मोटे काम कर अपनी ट्यूशन फीस निकालती थी।

जो मैडम मुझे ट्यूशन पढ़ाती थी उनका एहसान नहीं भूल सकती। उन्होंने रात-रातभर जाकर मुझे पढ़ाया है। मनीषा कहती हैं कि मेरी मां और बहन में हौसला दिया। परिवार के बाकी लोग कहते थे कि लड़कियां कुछ नहीं कर सकती। मैं मानती हूं कि लड़कियां लड़कों से कम नहीं हैं।

पापा मुझे देखकर हमेशा कहते हैं कि मेरे घर में लड़कियां नहीं सारे लड़के हैं। हम चारों बहनों ने मिलकर सारे काम किए हैं। कभी महसूस ही नहीं हुआ कि घर में लड़का होना चाहिए। मनीषा कहती हैं कि 12वीं पास कर ली है अब पुलिस सेवा में जाने का सपना है। इसके लिए मेहनत भी कर रही हूं।

दूसरी कहानी..

7 साल की उम्र में सुबह 5 बजे उठकर पन्नी बीनने का काम किया: मधु

मधु भोपाल रेलवे स्टेशन के पास एक छोटे से मकान में अपनी मां के साथ रहती हैं। वो एक सोशल वर्कर हैं और ऐसे बच्चों के लिए काम करती है जो पन्नी बीनने का काम करते हैं। मधु कहती हैं कि मुझसे बेहतर ऐसे बच्चों की मानसिक स्थिति के बारे में कोई नहीं जान सकता, क्योंकि मैंने भी 7 साल की उम्र में पन्नी बीनने का काम किया है।

मधु कहती हैं कि भारत टॉकीज के पास किसी समय झुग्गियां हुआ करती थीं। मैं, तीन बहनें और माता-पिता वहीं रहते थे। कुछ सालों बाद मां और पिता अलग हो गए। मैं घर में सबसे छोटी थी। मां मुझे पन्नी बीनने के लिए ले जाया करती थी।

मुझे याद है कि हम सुबह 5 बजे उठकर पन्नी बीनने का काम करते थे। एक समय का खाना साथ होता था। कभी वो भी नहीं होता था। जो लोग ट्रेन से खाना फेंक देते थे, उसी को खाकर गुजारा करते थे। मुझे केवल इतना पता होता था कि आज काम नहीं किया तो घर में खाना नहीं पकेगा।

मधु बताती हैं कि एक दिन आरंभ नाम की संस्था की एक दीदी की नजर मुझ पर पड़ी। उन्होंने मेरी मां से पढ़ाई को लेकर बात की, मां और उनकी बहस हो गई। मां को डर था कि मैं काम नहीं करूंगी तो फिर घर कैसे चलेगा।

उस दीदी ने जब मां को पुलिस की धमकी दी तब मेरा पहली कक्षा में एडमिशन हुआ, तब मेरी उम्र 12 साल थी। छोटे-छोटे बच्चों के साथ पढ़ना मुझे अटपटा लगता था। बच्चे भी चिढ़ाते थे। कई बार तो स्कूल से भागकर आ जाती थी। मधु मुस्कुराते हुए कहती है मैंने 10वीं तक पढ़ाई कर ली है।

मधु से उनके बचपन के बारे में पूछा तो बोलीं- बचपन के खेलों के बारे में तो मुझे अब पता चल रहा है। खेल क्या होते हैं मुझे पता ही नहीं था। मधु कहती हैं कि मेरी उम्र 27 साल हो चुकी है अब किसी तरह का कोई दबाव नहीं है। अब आजाद होकर मैं खुद अपने फैसले लेती हूं।

तीसरी कहानी..

सत्यम ने 11 साल की उम्र में पेपर बांटा, डांस बैटल के सट्टे में किस्मत आजमाई

19 साल का सत्यम एक पेट्रोल पंप पर काम करता है। भास्कर से उसकी मुलाकात पेट्रोल पंप पर ही हुई। सत्यम ने बताया कि घर में माता-पिता और दो छोटे भाई बहन है। पिता का कोई फिक्स जॉब नहीं है। मां नगर निगम की कर्मचारी है, लेकिन सैलरी बहुत कम है। घर में सबसे बड़ा हूं इसलिए काम करना पड़ा।

सत्यम कहता है कि 11 साल की उम्र से काम कर रहा हूं। किस तरह के काम किए? इस सवाल पर सत्यम ने कहा पेपर बांटता था। दो साल तक इसी काम को किया। इसके बदले मुझे 100 से 150 रुपए मिलते थे। इसी से पढ़ाई का खर्च भी निकलता था।

एक दिन मैं और मेरा दोस्त पेपर बांटने के लिए ट्रेन में चढ़े, उसी वक्त दोस्त ट्रेन से नीचे गिरा और उसकी मौत हो गई। मैं डर गया, इसके बाद इस काम को छोड़ दिया। जैसे ही काम छोड़ा तो पढ़ाई भी छूट गई। दोस्त के साथ हुए हादसे के बाद मैं भोपाल से अपनी बुआ और दादी के घर झांसी चला गया।

झांसी में एक गैरेज में काम करने लगा। जहां महीने के 3 हजार रुपए मिलते थे। मैंने फिर पढ़ाई शुरू कर दी। कई बार गैरेज का मालिक पैसे अटका कर रखता था, इससे काफी परेशानी होती थी, इसलिए मैंने गैरेज में काम करने के साथ कुछ और करने का सोचा।

सत्यम कहता है कि मुझे झांसी में चलने वाले अंडरग्राउंड डांस बैटल के बारे में पता चला। इस डांस बैटल में हार-जीत का सट्टा लगता था। लोग नाचने वाले लड़कों पर सट्टा लगाते थे। इसमें जो जीतता था उसे सट्टे की रकम से कुछ पैसा मिलता था। एक साल तक मैंने ये काम किया, इससे जितना पैसा कमाया वो सब डूब गया। फिर मैंने खुद को इन सबसे दूर कर लिया।

हमने सवाल पूछा, बचपन की कुछ यादें हैं, तो सत्यम ने कहा 11 साल की उम्र से काम ही कर रहा हूं, खेल-कूद, दोस्त, बचपन ये सब क्या होता है मुझे नहीं पता। अब जब सोचता हूं तो दुख ही होता है। सत्यम कहता है कि मुझे आगे पढ़ना है। फिलहाल, पेट्रोल पंप पर काम करता हूं, आठ हजार रु. मिलते हैं। इसी से गुजारा चल रहा है।

चौथी कहानी..

11 साल की उम्र में नशेड़ियों का सामना करना पड़ा: बिंदिया

बिंदिया का बचपन भी गौतम नगर की झुग्गियों में गुजरा। माता-पिता की कोविड में मौत हो चुकी है। एक बड़ा भाई है वह शराबी है, इसलिए उससे बात नहीं होती। बिंदिया मुस्कान नाम के एनजीओ में रहती है और वकालत की पढ़ाई कर रही है।

बिंदिया से जब उसके बचपन के बारे में पूछा तो बोलीं- झुग्गी बस्तियों में रहने वालों का बचपन कैसा होता है, वैसा ही था। माता-पिता पन्नी बीनने का काम करते थे, इसलिए स्कूल में पन्नी बीनने वाली कहा जाता था। दोस्त तो थे ही नहीं।

बिंदिया ने कहा एक दिन गुस्से में आकर मैंने स्कूल जाना छोड़ दिया। उस समय 11 साल की उम्र थी। इसके बाद मैं भी झुग्गियों की लड़कियों के साथ सुबह 4 बजे पन्नी बीनने के लिए जाने लगी। एक बार जब हम सभी लोग पन्नी बीन रहे थे उसी वक्त नशेड़ियों ने हमें घेर लिया। हमें उठाने की कोशिश की, लेकिन हम सभी लोगों ने हिम्मत दिखाई और वहां से भाग खड़े हुए।

बिंदिया ने ये भी कहा कि एक बार तो पुलिस स्टेशन में रात गुजारना पड़ी। रात में हम लोग पन्नी बीन रहे थे उसी वक्त पुलिस वाले आए और चोरी के संदेह में पकड़ कर ले गए। रात भर थाने में ही रहे। दूसरे दिन माता-पिता आए और वे हमें थाने से ले गए।

बिंदिया कहती है इतनी सारी कहानियां हैं कि सुनाते हुए पूरा दिन निकल जाएगा। बिंदिया से पूछा कि वकालत की पढ़ाई के बारे में कैसे सोचा, तो बोलीं- स्कूल में टार्चर तो झेला ही है। अक्सर हम झुग्गी वालों को पुलिस बेवजह पकड़ कर ले जाती है। हमें अपने अधिकार के बारे में पता ही नहीं होता

पांचवीं कहानी…

MBA चाय वाले जैसा ब्रांड बनाना चाहता हूं: देवेंद्र

23 साल के देवेंद्र की रेलवे स्टेशन पर चाय की दुकान है। देवेंद्र की इच्छा है कि एक दिन एमबीए चाय वाले जैसा खुद का चाय का कारोबार खड़ा कर सकूं। देवेंद्र ने भी घर की जरूरतों को पूरा करने के लिए 7 साल की उम्र से ही काम करना शुरू कर दिया था।

देवेंद्र से उसके बचपन के बारे में पूछा तो बोला- पिता को शराब की लत थी, वो अक्सर शराब पीकर मां के साथ मारपीट करते थे। मेरी किसी जरूरत को पूरा नहीं किया। स्कूल की कॉपी किताब तक खरीद कर नहीं देते थे।

पढ़ाई जारी रखने के लिए सुबह 8 बजे से दोपहर 12 बजे तक एक होटल पर काम करता था। उसके बाद स्कूल जाता था। स्कूल से लौटने के बाद घर के काम में भी पूरा वक्त गुजर जाता था। दूसरे बच्चों को खेलते-कूदते देखता था, तब बुरा लगता था, लेकिन कोई ऑप्शन ही नहीं था।

देवेंद्र कहता है कि मां की मौत हो चुकी है, पिता अपनी आदतों की वजह से जेल में है। स्टेशन पर कई साल तक चाय बेची है। इसी बीच एक एनजीओ की मदद से पढ़ाई भी जारी रखी। अब मैंने खुद एक चाय की दुकान खोल ली है।

एक्सपर्ट बोले- कोविड के बाद चाइल्ड लेबर की संख्या में तीन गुना बढ़ोतरी हुई

चाइल्ड लेबर के लिए काम करने वाली एक संस्था से जुड़े राजीव भार्गव बताते हैं कि कोविड के बाद जब लोग अपने गांव वापस पहुंचे, तो उनके साथ बच्चे भी आए। दूसरी जगह पर बच्चे जो काम करते थे वो काम अब एमपी में करने लगे।

वे कहते हैं कि आज की तारीख में बाल श्रमिकों का ऑफिशियल कोई डेटा नहीं है, लेकिन 2011 की जनगणना में ये आंकड़ा करीब 7 लाख था। कोविड के बाद पूरी दुनिया में ये ट्रेंड देखा गया है कि चाइल्ड लेबर की संख्या में तीन गुना बढ़ोतरी हुई है। उस हिसाब से एमपी में 20 लाख से ज्यादा बच्चे काम कर रहे होंगे।

बच्चों के कम उम्र में काम करने के सवाल पर राजीव बताते हैं कि ज्यादातर बच्चे अन ऑर्गेनाइज सेक्टर में काम करते हैं। कई बच्चे अपने परिवार की जरूरतों को पूरा करने के लिए छोटी उम्र में ही काम करने के लिए मजबूर होते हैं। इसका बुरा पक्ष ये है कि वह पढ़ाई छोड़ देते हैं और उनका बचपन भी खत्म हो जाता है।

वहीं चाइल्ड लाइन की पूर्व निदेशक अर्चना सहाय कहती हैं कि एमपी में बाल मजदूरी को लेकर अभी बहुत काम करने की जरूरत है। ऐसा नहीं है कि लोग जागरूक नहीं हुए हैं, मगर राइट टू एजुकेशन में अच्छा काम हो तो स्थिति बेहतर हो सकती है।


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एडवोकेट अरविन्द जैन

संपादक, बुंदेलखंड समाचार अधिमान्य पत्रकार मध्यप्रदेश शासन

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