कानपुर में आई-फोन जैसा जलवा रखती थी लाल इमली, ठंड छुड़ा देती थी पसीना! | – News in Hindi

नई दिल्ली स्थित NGMA, नेशनल गैलरी ऑफ मॉडर्न आर्ट में मशहूर चित्रकार नंदलाल बोस द्वारा बनायी हुई ये तस्वीर आज भी टंगी है. इस तस्वीर में एक भेड़ है. इस तस्वीर को ध्यान से देखेंगे तो पायेंगे कि कलाकार ने उस समय (1954) के उत्तर प्रदेश के मैप को एक भेड़ के रूप में दिखाया है. तस्वीर के एक तरफ बांग्ला में लिखा है, “लाल इमली”. तस्वीर पर श्री बोस के साइन भी हैं, “नंद”. वो अपनी बनायी तस्वीरों पर ऐसे ही साइन किया करते थे.
अब लाल इमली का जलवा देखिए. भेड़ के आकार में बने यूपी के इस मैप को देख कर लगता है कि भेड़ की ऊन से ऊनी वस्त्र बनाने वाली लाल इमली, एक समय में यूपी की कितनी बड़ी पहचान रही होगी. सोचिए जरा, जिस कानपुर की पहचान आज पान मसाले से होती है, एक समय वही कानपुर अपने लाल इमली वाले ऊनी कपड़ों के लिए जाना जाता था. लाल इमली पर कानपुर वालों को और उसे इस्तेमाल करने वालों को, सबको नाज था. मेरे फेसबुक मित्र अजय पांडेय के दादा जी को भी…
गुजरे जमाने का एप्पल, लाल इमली!!
लखनऊ के अजय पांडेय ने फेसबुक पर जैसे ही उस दिन लाल इमली वाली मेरी रील देखी तो कमेंट बॉक्स में झट से लिख डाला, “लाल इमली महज नाम नहीं, हमारे दादी बाबा के समय का i फोन यानी स्टेटस सिंबल हुआ करता था. मुझे आज भी याद है 20 साल पहले बाबा एक ग्रे कलर का पतला सा लाल इमली का कंबल रखते थे और कहते थे कि ये ओढ़ लो बस पसीना छूट जाएगा. चाहे जितनी भी ठंड हो और ये बोल के वो बहुत खुश भी होते थे.”
अजय पांडेय जी ने बिलकुल सही कहा. लाल इमली की शालों और कंबलों ने कई पीढ़ियों को ऐसे ख़ुशी के पल सौगात में दिये हैं. लाल इमली उस समय का एप्पल ही थी. लाल इमली के जलवे से कानपुर का बड़ा रोआब था. आज इसके अंदर की मशीनें बंद हैं, ठंडी पड़ चुकी हैं. लेकिन एक जमाना था जब इन मशीनों ने हजारों तन ढके हैं, सर्द मौसमों में लोगों को गर्मी का एहसास करवाया है. विश्वसनीयता का नाम कमाया है और यही वो विश्वास है, जिसके कारण अजय पांडेय ने इसे गुजरे जमाने का “एप्पल” कहा है.
बताया जाता है कि पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी व उनके पुत्र राजीव गांधी का इस मिल से बहुत गहरा नाता था. राजीव गांधी यहां की प्रसिद्ध टूसलोई व 60 नंबर लोई पहना करते थे. उनकी कई फोटो हैं, जिनमें वह यहां की लोई पहने हुए हैं.
मेरा पहला वास्ता
बात उस समय की है जब मैंने लाल इमली की लाल दीवारों को पहली बार छुआ था, जब पहली बार उसके दर्शन किए थे. जीवन का पहला स्कूल था. स्कूल की पहली सर्दियां थीं और स्कूल की पहली स्वेटर का जमाना था. उम्र रही होगी यही कोई पांच छह साल क्योंकि यूकेजी में थी.
मुझे आज भी वो दिन नहीं भूलता जब चकेरी एयर फोर्स स्टेशन से मां के साथ पहली बार इस आइकोनिक लाल इमली गई थी. लाल इमली के मेरे वो पहले भव्य दर्शन, मुझे आजतक नहीं भूले हैं. मुझे यहां तक याद है कि उस रोज मिल के अंदर की मशीनों की गड़गड़ाहट, बाहर तक सुनायी दे रही थी और मैं एक नन्हें उत्सुक बच्चे की तरह उन दीवारों को ऐसे छू रही थी कि शायद उस गड़गड़ाहट की वाइब्रेशन दीवार से महसूस कर पाऊं. इधर, कुछ दिन पहले किसी काम से कानपुर जाना हुआ तो अपने आप को रोक ना पायी. लाल इमली को देखने चली गई. जब तक पहुंची, शाम ढल चुकी थी, लाइटें जल चुकी थीं. लाल इमली अपनी पूरी भव्यता के साथ सर ऊंचा कर वैसे ही खड़ी थी जैसे मुझे याद थी. बिलकुल एक स्वाभिमानी बुजुर्ग के मानिंद. आसपास बात करने से पता चला कि आजकल लाल इमली को धरोहर स्वरूप सजाने की मुहिम चल रही है. इसीलिए जिस लाल इमली की लाल दीवारों को मेरे नन्हें हाथों ने कभी रोमांच से छुआ था, आज वही दीवारें, चम चम लाइटों से जगमग हैं. बस एक बात खली. वो ये कि बचपन में सुनी उस मिल की मशीनी धड़कने अब हमेशा के लिए बंद हो गई हैं.
खैर, आज के दौर में लाल इमली के राजीव गांधी जैसे राजदूत/प्रशंसक तो नहीं रहे पर सर अलेक्जेंडर मैक् रॉबर्ट का नाम, कानपुर में आज भी जिंदा है. जब तक कानपुर के मैक्रॉबर्टगंज की सांसों में सांस है, लाल इमली और उस बिदेसी बंधु का कानपुर में नाम कायम है.
Source link