मध्यप्रदेश

Seeing the map of Madhya Pradesh, Nehruji had said | ये क्या ऊंट जैसा राज्य बना दिया, चुनाव के इस दौर में प्रदेश के जन्म से अब तक के रोचक राजनीतिक किस्से

भोपालएक घंटा पहले

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दीपक तिवारी – पूर्व कुलपति, माखनलाल चतुर्वेदी विश्वविद्यालय
आज जो मैं हूं, उस स्वरूप में मेरा जन्म एक संयोग था। संयोग उस समय की राजनैतिक स्थितियों का और पड़ोसी राज्यों की भाषाई पहचान की आकांक्षा का। आंध्र में भाषा का आंदोलन नहीं होता तो शायद मेरा अस्तित्व नहीं होता।
हालांकि, दिसंबर 1953 में राज्य पुनर्गठन आयोग के बनने के पहले मेरा खाका पहली बार महाकौशल कांग्रेस कमेटी ने संजोया था। लेकिन मेरे जन्म की मन्नत किसी ने नहीं मांगी थी। पुनर्गठन आयोग के सामने जब राज्यों के निर्माण के सिद्धान्त रखे गए तब यह बात सामने आई कि तेलुगु बोलने वाले भारत के नागरिकों का नया राज्य आंध्रप्रदेश बनेगा और मराठी बोलने वालों का महाराष्ट्र। तब बंबई राज्य में आज का पूरा गुजरात और महाराष्ट्र शामिल था। आयोग की रिपोर्ट के 4 साल बाद 1960 में बम्बई राज्य को तोड़कर महाराष्ट्र और गुजरात बना दिया गया। मध्यप्रदेश का जन्म 1 नवंबर, 1956 में हुआ।
मेरा जन्म संयोग इसलिए भी था क्योंकि नए बनने वाले जितने भी गैर-हिन्दी राज्यों के हिंदी बोलने वाले जिले और तहसीलें बची थीं उन्हें और मध्यभारत, भोपाल तथा विंध्य को मिलाकर एक नया राज्य गढ़ दिया गया। ये तीन छोटे राज्य ‘पार्ट-बी स्टेट’ कहलाते थे। जहां सीएम और विधानसभा तो चुनी हुई होती थीं, लेकिन राजप्रमुख, एक तरह से राज्यपाल, स्थानीय शासक ही थे। इस तरह मध्यभारत में सिंधिया, भोपाल में नवाब और विंध्य में रीवा राजघराने के महाराज ही राजप्रमुख थे।
जब 4 राज्यों को जोड़ा गया, तब उसमें सबसे बड़ा सूबा पुराना मध्यप्रदेश (सेंट्रल प्रोवींस) ही था। राजधानी नागपुर थी। मध्यभारत की शीतकालीन राजधानी ग्वालियर, ग्रीष्मकालीन इंदौर थी। विंध्यप्रदेश की राजधानी रीवा थी और सबसे छोटा राज्य भोपाल था। चारों राज्यों को मिलाकर जो नक्शा बना वह बेडौल था। तत्कालीन पीएम पंडित जवाहरलाल नेहरू ने इसे देखकर कहा, ‘ये क्या ऊंट जैसा राज्य बना दिया’।

जब आयोग की अंतिम रिपोर्ट में मध्यप्रदेश नए रूप में सामने आया तो भूगोल के हिसाब से भोपाल और जबलपुर के बीच राजधानी चुनने का सवाल था। तब छत्तीसगढ़ भी मप्र का हिस्सा था, इसलिए जबलपुर की बीचों-बीच लोकेशन, उसके पक्ष में बड़ा तर्क था। जब लोगों को लगने लगा कि जबलपुर ही राजधानी बनेगी तो कुछ नेताओं और उद्योगपतियों ने जबलपुर के आसपास जमीनें खरीद लीं।

यह बात जब पंडित नेहरू तक पहुंची तो वे नाराज हुए। जब भोपाल और जबलपुर के बीच राजधानी का संघर्ष बढ़ गया तब जबलपुर में हाईकोर्ट की स्थापना की गई। तभी राष्ट्रसंत विनोबा भावे ने कहा था कि जबलपुर राजधानी भले न बने यह हमेशा संस्कारधानी रहेगी। भोपाल की नवाबकालीन इमारतें और पंडित नेहरू का भोपाल प्रेम ही था, जिसके कारण भोपाल के पक्ष में फैसला हुआ। खैर, जब राजधानी का विषय सुलझ गया, तो पहला मुख्यमंत्री कौन होगा इस पर बात आई। चारों राज्यों में तब कांग्रेस की निर्वाचित सरकारें थीं, इसलिए सबसे बड़े राज्य के मुख्यमंत्री और सबसे वरिष्ठ राजनेता पंडित रविशंकर शुक्ल को नए प्रदेश का मुख्यमंत्री सर्वसम्मति से बनाया गया।

1 नवम्बर, 1956 को जब 80 वर्षीय रविशंकर शुक्ल जीटी एक्सप्रेस में बैठकर भोपाल आए और देर शाम राजभवन पहुंचे, तो शपथ के ठीक पहले उनको याद दिलाया गया कि आज तो अमावस्या की रात है। जो शुभ नहीं मानी जाती। शुक्ल जी ने तत्काल ही बात को काटते हुए कहा, जिस रात को लाखों दीये जगमगा रहे हों, चारों तरफ उजाला किया जा रहा हो, वह अशुभ कैसे हो सकती है। 1 नवंबर को शपथ वाली रात, दिवाली की रात थी! उस रोज मेरी नई राजधानी में एक तरफ शपथ चल रही थी, दूसरी तरफ नए मंत्रिमंडल और सरकार के प्रशासनिक ढांचे की जमावट की जद्दोजहद हो रही थी। मध्यभारत के लोग नाराज थे कि नए प्रदेश की गरीबी दूर करने के लिए उनके यहां की फैक्ट्रियों और संपन्न किसानों की आय दूसरे इलाकों में खर्च की जाएगी। तब इंदौर और मालवा प्रदेश सरकार को सबसे ज्यादा टैक्स देता था। (यह स्थिति आज तक चल रही है।) मेरी नई राजधानी तब बहुत छोटा शहर हुआ करती थी। रहने के घरों की कमी और हजारों लोगों के अचनाक आने से राजधानी में अव्यवस्था का आलम कई दिनों चला। प्रशासन और अधिकारियों की नियुक्तियों में इतना कन्फ्यूजन हुआ कि रजवाड़ों के पटवारी, डिप्टी कलेक्टर बन गए। पुराने राज्यों की राजधानियों से आई फाइलें और रिकाॅर्ड दो साल तक वैगनों में रेलवे स्टेशन पर ही डले रहे।

चूंकि पुराने मध्यप्रदेश को छोड़कर, जहां अंग्रेजों का बनाया प्रशासनिक तंत्र था, बाकी सब जगह राजे-रजवाड़ों की दरबारी व्यवस्था थी, इसलिए सम्पूर्ण विलय में बहुत दिक्कतें आईं। मेरे जन्म के पहले महीने से ही मालवा और रीवा से आए सरकारी बाबुओं का संघर्ष भी चालू हुआ। यह कभी भाषा को लेकर होता, कभी पोहे में शक्कर मिलाने को। मालवा के लोग मीठा पोहा पसंद करते, तो विंध्य के लोग बिना शक्कर वाला। अलग-अलग तरह के कई मज़ेदार संघर्ष इस बीच जन्मे, जो आज तक जारी हैं। इस बीच तीसरे ही महीने में एक अनहोनी घट गई।


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एडवोकेट अरविन्द जैन

संपादक, बुंदेलखंड समाचार अधिमान्य पत्रकार मध्यप्रदेश शासन

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