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बावरा मन: कर्ण-एकलव्‍य को जिन अधिकारों से वंचित रखा उन्‍हें लौटाने का वक्‍त | – News in Hindi

रश्मिरथी : एक वनवास ऐसा भी…

वर्षों तक वन में घूम घूम,

बाधा विघ्नों को चूम चूम

सह धूप घाम पानी पत्थर,

पांडव आये कुछ और निखर

सौभाग्य न सब दिन सोता है,

देखें आगे क्या होता है…

हुआ ये कि इन पंक्तियों के साथ रामधारी सिंह दिनकर ने रश्मिरथी के तीसरे सर्ग में एक मापदंड तय किया. इस मापदंड के अनुसार जो व्यक्ति वन में तपता है, जीवन में दुख दर्द सहता है, उसका भाग्य आख़िरकार एक ना एक दिन, निखरता ही है. कविवर दिनकर ने दुर्दिन देख निखरने का जो मापदंड बनाया है, क्या कारण है कि वो मापदंड पांडवों के लिए तो है, पर कर्ण और एकलव्य के लिए नहीं है??

देखा जाये तो कर्म से, मेहनत से, प्रतिभा से, और दुर्दिन की बाधाएं झेलने में… कर्ण और एकलव्य, पांडवों से कहीं आगे थे. उन्होंने तो पांडवों से कहीं अधिक बाधाएं पार की थीं. जीवन में अपार विघ्न भी देखे थे. फिर क्या कारण रहा कि एकलव्य और कर्ण की परीक्षा का कोई अंत नहीं था जबकि, अभिजात्य पांडवों ने “वन में तप के” अपने भविष्य को संवारने की शक्ति प्राप्त कर ली थी. उनके चेहरों पे तथाकथित “तेज” भी आ गया था. वनवास का असर पांडवों पर कुछ और, और कर्ण एकलव्य पर कुछ और, कैसे रहा. कारण है जाति… और जाति आधारित पक्षपात.

क्या है ना, अभिजात्य वर्ग जब संघर्ष करता है, सबकी सहानुभूति उसके साथ हो जाती है. कवि की भी, भगवान की भी और समाज की भी. सबको लगता है, “हाय बेचारा”!

जबकि एक वनवासी या वंचित समाज का संघर्ष, किसी को भी नहीं अखरता. उसके लिए कोई सहानुभूति के स्वर कहीं से नहीं उठते. वो खुद और दूसरे भी, इसे नियति का खेल या कर्मों का खेल बता, आंख मूंद  लेते हैं. इस बात की सबसे बड़ी गवाह स्वयं रश्मिरथी ही है.

यही कारण है कि हमारे यहां उच्चकुलीन राजपरिवारों के महायुद्धों पर तो महाग्रंथ लिखे गये परंतु आम आदमी के संघर्षों की कहानी कभी भी समाज में सामने ना आ पायी. हां, मौखिक परंपरा से चले आ रहे दलित लोकगीतों में, ये कहानी बहुत कुछ दर्ज हुई है. लेकिन ये भी सच है कि इस समाज के अधिकारों का वनवास बहुत लंबा चला है. कहें तो 1947 तक…

रश्मिरथी तीसरा सर्ग

दरअसल, पिछले दिनों टीवी डिबेट्स में “जब नाश मनुज पर छाता है, पहले विवेक मर जाता है” इतनी बार सुना कि बावरा मन सोच में पड़ गया कि आखिर क्या कारण है कि रश्मिरथी का तीसरा सर्ग तो सब पढ़ते हैं, उसका गुणगान करते हैं. परंतु प्रथम और द्वितीय सर्ग का प्रचलन पॉपुलर कल्चर में एक दम ना के बराबर है.

अक्सर नेता, अभिनेता, कवि, पत्रकार… रामधारी सिंह दिनकर की रश्मिरथी को कोट करते, दुर्योधन अर्थात अपने राजनैतिक विरोधी के लिए कहते दिखते हैं कि, “जब नाश मनुज पर छाता है, पहले विवेक मर जाता है.” ये बहुप्रचलित पंक्ति, कृष्ण की चेतावनी से है और ये रश्मिरथी के तीसरे सर्ग से ली गई है. इस पंक्ति के पीछे की कहानी भी इसी तीसरे सर्ग में ही है और समाज में बेहद मशहूर है…

मैत्री की राह दिखाने को,

सब को सुमार्ग पर लाने को

दुर्योधन को समझाने को,

भीषण विध्वंस बचाने को

भगवान हस्तिनापुर आए,

पांडव का संदेशा लाये

दो न्याय अगर तो आधा दो,

पर इसमें भी यदि बाधा हो

तो दे दो केवल पांच ग्राम,

रखो अपनी धरती तमाम

वहीं खुशी से खायेंगे,

परिजन पे असी ना उठाएंगे

दुर्योधन वह भी दे ना सका,

आशीष समाज की ले ना सका

उलटा हरि को बांधने चला,

जो था असाध्य साधने चला

जब नाश मनुज पर छाता है,

पहले विवेक मर जाता है.

ऊपर दी हुई इन पंक्तियों के जरिये ये दर्शाने कि कोशिश हुई है कि पांडव तो आधे न्याय से भी खुश हो जाते, यहां तक कि वो पांच गांव मिलने से भी अपना पूरे राज्य पर से हक छोड़ने को तैयार थे. पांडव अपने कौरव भाइयों से युद्ध नहीं चाहते थे. परंतु जब उनके साथ पांच गांव भर का भी न्याय ना हुआ, इसीलिए युद्ध जरूरी हुआ.

क्या कारण है कि, द्वापर युग का ये आधा न्याय या पांच गांव का हक भी कुलीन परिवारों के लिये ही सुरक्षित था. राजकुल में पैदा हुए लोग ही न्याय के नाम पर जर, जोरू, जमीन पर “लड़ने” का हक रखते थे. उनके इन्हीं हकों की “मर्यादा” तो तीसरे सर्ग में दिखायी गई है जबकि उसी द्वापर समाज में वनवासियों और वंचित समाज के साथ कैसा न्याय होता था, इसकी जानकारी प्रथम दो सर्गों से मिलती है और यही कारण है जो प्रथम दो सर्ग उतने प्रचलित नहीं हैं. तो आखिर प्रथम सर्ग में क्या है??

रश्मिरथी प्रथम सर्ग

प्रथम सर्ग में सभा सजी है. सारे राजकुमार अपना शौर्य प्रदर्शन कर रहे हैं. ऐसे में भरी महफिल में कर्ण ने अर्जुन को ललकार दिया है. गुरु कृपाचार्य और बाकी सब बुजुर्ग भी जान रहे हैं कि कर्ण अर्जुन से बहुत आगे है. ऐसे में अर्जुन का कर्ण से बचाव किस तरह किया जाये. इसी दृश्य का चित्रण करते दिनकर कहते हैं…

फिरा कर्ण, त्यों ‘साधु-साधु’ कह उठे सकल नर-नारी,

राजवंश के नेताओं पर पड़ी विपद् अति भारी.

द्रोण, भीष्म, अर्जुन, सब फीके, सब हो रहे उदास,

एक सुयोधन बढ़ा, बोलते हुए, ‘वीर! शाबाश !’

द्वन्द्व-युद्ध के लिए पार्थ को फिर उसने ललकारा,

अर्जुन को चुप ही रहने का गुरु ने किया इशारा.

कृपाचार्य ने कहा- ‘सुनो हे वीर युवक अनजान’

भरत-वंश-अवतंस पाण्डु की अर्जुन है संतान.

‘क्षत्रिय है, यह राजपुत्र है, यों ही नहीं लड़ेगा,

जिस-तिस से हाथापाई में कैसे कूद पड़ेगा?

अर्जुन से लड़ना हो तो मत गहो सभा में मौन,

नाम-धाम कुछ कहो, बताओ कि तुम जाति हो कौन?’

‘जाति! हाय री जाति !’ कर्ण का हृदय क्षोभ से डोला,

कुपित सूर्य की ओर देख वह वीर क्रोध से बोला

‘जाति-जाति रटते, जिनकी पूजी केवल पाषंड,

मैं क्या जानूं जाति ? जाति हैं ये मेरे भुजदंड.

इस तरह कर्ण को जाति के नाम पर जो अवहेलना द्वापर में सहनी पड़ी, उसे उसका न्याय 1947 के बाद ही मिला. जब एक नया कर्ण, अंबेडकर बन समाज में नयी अलख जगाने आया…

कर्ण का भाग्योदय

आजादी के तुरंत बाद के सालों में कर्ण पर बहुत कुछ लिखा गया है. जैसे अचानक, 1947 में देश को ही नहीं, कर्ण को भी आजादी मिली हो. कर्ण का भी वनवास खत्म हुआ हो. स्वयं दिनकर ही कहते हैं, “कर्ण का भाग्य सचमुच बहुत दिनों बाद जगा है. यह उसी का परिणाम है कि उसके पार जाने के लिए जलयान के जलयान तैयार हो रहे हैं. जहाजों के इस बड़े बेड़े में मेरी ओर से एक छोटी सी डोंगी (रश्मिरथी) ही सही.”

दिनकर ने 16 फरवरी 1950 में रश्मिरथी लिखनी प्रारंभ की थी और उस से कुछ दिन पहले ही यानी 26 जनवरी 1950 को भारत का संविधान लागू हुआ था. दरअसल, आजाद भारत में हवा का रुख किस ओर बह रहा था, साहित्यकार जान रहे थे. जिस वंचित वर्ग पर युगों तक किसी ने एक ग्रंथ क्या एक कहानी तक ना लिखी, अचानक उस पर सबकी कृपा कैसे जाग उठी थी? आखिर क्या कारण था कि आजादी के बाद ही कर्ण पर साहित्यकारों की ये दयादृष्टि संभव हुई??

ये इसलिए भी संभव हुई क्योंकि उस दौर में एक अंबेडकर हुए जिन्होंने द्वापर के कर्ण की ही तरह, आधुनिक भारत में अपनी शिक्षा और योग्यता से धूम मचा दी थी. उस महापुरुष ने आजाद भारत का संविधान लिख डाला था. अंबेडकर की संविधान सभा में जगह ने, भारतीय समाज को जतला दिया था कि अब देश की किस्मत, एक कर्ण यानि एक दलित के हाथों में है.

रश्मिरथी को रचे जाने की भूमिका में स्वयं दिनकर लिखते हैं, “ये युग दलितों और उपेक्षितों के उद्धार का युग है. अतएव, यह बहुत स्वाभाविक है कि राष्ट्र भारती के जागरुक कवियों का ध्यान उस चरित की ओर जाये जो हजारों वर्षों से हमारे सामने उपेक्षित एवं कलंकित मानवता का मूक प्रतीक बनकर खड़ा रहा है. कर्ण चरित के उद्धार की चिंता इस बात का प्रमाण है कि हमारे समाज में मानवीय गुणों की पहचान बढ़ने वाली है. कुल और जाति का अहंकार विदा हो रहा है.”

चलते चलते

क्या है ना, रश्मिरथी के प्रथम सर्ग को पढ़ने, समझने की नयी कोशिश समाज में होती रहनी चाहिए. गलत को सही और न्यायोचित करने की प्रक्रिया, निरंतर चलती रहनी चाहिए. जिस वंचित समाज को अपने पांच गांव रूपी प्रतीकात्मक हक प्राप्त करने का पहला अधिकार ही 1947 के बाद आजाद भारत में मिला हो, वक्‍त आ गया है कि हम पांच गांव वाले उस प्रतीकात्मक न्याय से आगे बढ़ें. मान्यवर कांशी राम जी के सपने “जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी” को साकार करें. वंचित समाज को आधा नहीं पूरा न्याय दें. मुख्यधारा से इस समाज का लंबा वनवास खत्म करने की एक और ईमानदार कोशिश करें. इस नये विश्वास के साथ कि…

सौभाग्य न सब दिन सोता है,

देखें आगे क्या होता है…!!


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एडवोकेट अरविन्द जैन

संपादक, बुंदेलखंड समाचार अधिमान्य पत्रकार मध्यप्रदेश शासन

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