गाड़िया लोहार: महाराणा प्रताप की कसम निभाते हुए 500 सालों की परंपरा.

Gadia Lohar: जब आप यात्रा करते हैं, तो आपने अक्सर सड़कों के किनारे कुछ लोगों को लोहे के बर्तन और घरेलू सामान बनाते और बेचते हुए देखा होगा. ये परिवार अस्थायी रूप से सड़क के किनारे डेरा डालते हैं, और फिर कुछ समय बाद, दूसरी जगह चले जाते हैं. हालांकि, कई लोग उन्हें बंजारा मानते हैं, लेकिन वे वास्तव में खानाबदोश हैं जो कठिन परिस्थितियों में जीवन यापन करते हैं. लेकिन ये लोग आम नहीं हैं, उनका महाराणा प्रताप से गहरा रिश्ता है. गाड़िया लोहार की कहानी बहुत अजीब है. अतीत से जुड़े वचन को वे पिछले पांच सौ साल से निभाते आ रहे हैं. कभी मेवाड़ के प्रतापी योद्धा महाराणा प्रताप के सैनिक रहे गाड़िया लोहारों ने तब यह कसम खाई थी कि जब तक मेवाड़ आजाद नहीं हो जाता, तब तक वह पक्के मकानों में नहीं रहेंगे और यायावर जिंदगी बिताएंगे.
इन पांच सौ सालों में बहुत कुछ बदल गया, लेकिन उन्होंने महाराणा प्रताप को दी हुई कसम नहीं तोड़ी. मेवाड़ ही नहीं, भारत भी आजाद हो गया, लेकिन आज भी ये लोग खानाबदोश वाली जिंदगी जीते आ रहे हैं. आज भी ये लोहे से बने सामान बेचते आ रहे हैं. पहले जहां तलवार और अन्य हथियार बनाते थे अब इनकी जगह खेती, निर्माण कार्य और रसोई में काम आने वाले लोहे के सामान बनाते हैं. ये समुदाय अभी भी लकड़ी से बनी गाड़ियों में ही जिंदगी बसर करता है. हालांकि इनकी गाड़ियों के चक्के थम से गए हैं, लेकिन जिंदगी की रफ्तार अभी भी बाकी है.
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कहां पाया जाता है ये समुदाय
गाड़िया लोहार राजस्थान और उत्तर प्रदेश का खानाबदोश समुदाय है. ये मध्य प्रदेश के मालवा क्षेत्र में भी पाए जाते हैं. ये लोहे के बर्तन और घरों में इस्तेमाल होने वाले औजार बनाकर गुजर-बसर करते हैं. इसके अलावा ये समुदाय कृषि और बागवानी में इस्तेमाल होने वाले छोटे औजार भी बनाते हैं. बता दें कि ये ईरान, पाकिस्तान और भारत के लोहार वंश से अलग समुदाय होता है. गाड़िया लोहार समुदाय को गाडुलिया लोहार या सिर्फ लोहार भी कहा जाता है.
ये समुदाय अभी भी लकड़ी से बनी गाड़ियों में ही जिंदगी बसर करता है.
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कैसे पड़ा ‘गाड़िया लोहार’ नाम
कोबास पुएंते ने अक्टूबर 1984 में यूनेस्को कूरियर में लिखे अपने लेख ‘गडुलिया लोहार: भारत के घुमंतू लोहार’ में बताया कि इस समुदाय के लोग अपने परिवारों के साथ बैलगाड़ी पर एक जगह से दूसरी जगह तक जाते हैं. इसे हिंदी में गाड़ी कहा जाता है. इसलिए इनका नाम ‘गाड़िया लोहार’ पड़ा. वह लिखते हैं कि गाड़िया लोहार समुदाय के पूर्वज मेवाड़ की सेना में लोहार थे. वे मेवाड़ के महाराणा प्रताप का वंशज होने का दावा भी करते हैं. जब मेवाड़ पर मुगलों ने कब्जा कर लिया, तो महाराणा प्रताप जंगल की ओर चले गए. जंगल में उनकी मुलाकात उन लोगों से हुई, जिन्होंने उनकी और उनके परिवार की मदद की.
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क्या थी वो कसम, जिसे निभा रहे
‘गाड़िया लोहार’ समुदाय के पूर्वजों ने परिवार के साथ जंगल में भटक रहे महाराणा प्रताप को कसम दी थी कि जब तक वह चित्तौड़गढ़ पर जीत हासिल नहीं कर लेते, तब तक वे कभी भी अपनी मातृभूमि नहीं लौटेंगे और ना ही कभी स्थायी तौर पर कहीं बसेंगे. उन्होंने प्रतिज्ञा की थी कि उनके चित्तौड़गढ़ लौटने तक उनके परिवार कभी भी छत के नीचे नहीं रहेंगे. दुर्भाग्य से महाराणा प्रताप कभी चित्तौड़ नहीं जीत पाए. इसलिए लोहार समुदाय आज भी महाराणा को दी अपनी प्रतिज्ञा पर कायम है. इसीलिए वे ना तो किसी एक जगह बसते हैं और ना ही घर बनाते हैं. उनकी पूरी जिंदगी एक बैलगाड़ी में ही सिमटी रहती है. हालांकि, अब बैलगाड़ी की जगह नए जमाने की गाड़ियों ने ले ली.
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ये लोहे के बर्तन और घरों में इस्तेमाल होने वाले औजार बनाकर गुजर-बसर करते हैं.
महाराणा प्रताप की सेना में थे शामिल
गाड़िया लोहार समुदाय के पूर्वज महाराणा प्रताप की सेना में शामिल थे. वे उनकी सेना के लिए हथियार बनाते थे. इस समुदाय ने महाराणा प्रताप के किला छोड़ने के बाद ही चित्तौड़गढ़ छोड़ दिया था. तब से देश के अलग-अलग हिस्सों में भटक रहे इस समुदाय को कोई सरकार सुविधा नहीं मिल पाती है. यही नहीं, जरूरी कागजात ना होने के कारण उनके बच्चों को स्कूलों में दाखिला भी नहीं मिल पाता है. हालांकि, अब समुदाय के कुछ लोगों ने अपने बच्चों की पढ़ाई-लिखाई पर भी ध्यान देना शुरू कर दिया है. देश में आधुनिक मशीनें आने के बाद से लोग उनके औजारों को कम ही खरीदते हैं. ऐसे में समुदाय के सदस्यों को दो वक्त की रोटी के लिए मेहनत मजदूरी तक करनी पड़ रही है.
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कड़ी मेहनत के लिए जाने जाते हैं
घुमंतू जनजाति गाड़िया लोहार अपने कठोर परिश्रम के लिए दुनिया भर में जाने जाते हैं. इस जनजाति के लोग पूरी जिंदगी इधर-उधर घूमकर सड़क के किनारे बिता देते हैं. आज भी ये लोग सड़क किनारे कच्चे घर बनाकर अपना पूरा जीवन बिता देते हैं. महाराणा प्रताप के लिए हथियार बनाने वाले गाड़िया लोहार अब दो वक्त की रोटी के लिए पूरे-पूरे दिन लोहे के औजार बनाते हैं. समुदाय के लोगों की सजी-धजी गाड़ियां इनकी पहचान हैं. पहले वे इन गाड़ियों से ही व्यापार करने जाते थे. लेकिन अब ऐसी सजी-धजी गाड़ियां इनके सड़क किनारे कच्चे घरों में ही दिखती हैं.
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अभी भी निभा रहे परंपरा
मालूम हो कि इस समुदाय के ज्यादातर डेरे गांवों के बाहर ही मिलते हैं. समुदाय के लोग किसी दूसरे समुदाय के साथ मेलजोल पसंद नहीं करते हैं. इनका खानपान और रिश्तेदारियां समुदाय के भीतर ही होती हैं. इनकी भाषा में मेवाड़ का लहजा साफ झलकता है. इनका पहनावा और पारिवारिक ढांचा अब भी पुरानी परंपराओं के मुताबिक ही है. दिल्ली और आसपास के इलाकों में करीब 40,000 गाड़िया लोहार रहते हैं. इसके अलावा राजस्थान के हर जिले में समुदाय के लोग मिल जाते हैं. अब ये समुदाय देश के कई राज्यों में फैल गया है. महाराणा प्रताप की प्रतिज्ञा से बंधे समुदाय के लोग अब अपने बच्चों को विकास की धारा में शामिल करने की इच्छा जताते हैं. वे चाहते हैं कि उनके बच्चे आगे बढ़ें और अपना भविष्य सुधारें.
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