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बिहार में उसी की सरकार, जिसके साथ होंगे नीतीश कुमार! लालू और तेजस्वी भी फेल | – News in Hindi

बिहार में उसी की सरकार, जिसके साथ नीतीश कुमार. यह धारणा आम आदमी की नहीं है. यह राजनीतिक दलों का मानना है. भले यह बात कोई मुखर होकर नहीं कहता, लेकिन हर दल का यही प्रयास रहता है कि नीतीश कुमार उसके साथ आ जाएं. खासकर उनका, जो बीते दो दशक से बिहार की सत्ता में आते-जाते रहे हैं. यह सबको पता है कि ऐसे दलों में आरजेडी और भाजपा ही हैं। नीतीश जब आरजेडी के साथ होते हैं तो उसे सत्ता का सुख मिल जाता है और जब भाजपा के साथ रहते हैं तो भाजपा सत्ता में शामिल हो जाती है. हालत यह है कि स्वतंत्र रूप से न आरजेडी को सत्ता पाने की उम्मीद है और न भाजपा ने ही ऐसी कोशिश कभी की. यही वजह है कि बिहार की राजनीति में नीतीश कुमार अपरिहार्य हो गए हैं.

नीतीश बिहार में पावर बैलेंस के टूल

सच कहें तो नीतीश कुमार भी कभी उस औकात में नहीं रहे कि वे अपने बूते बिहार में सरकार बना लें. उन्हें भी साथी की उतनी ही जरूरत अब तक दिखी है, जितनी आरजेडी या भाजपा को उनकी जरूरत महसूस होती है. बिहार की सियासत में बैलेंसिंग पावर नीतीश बन गए हैं. वर्ष 2015 हो या 2022, आरजेडी को सत्ता का स्वाद अगर मिला तो वह नीतीश की कृपा से ही संभव हो पाया. इसी तरह 2005 से 2015 तक लगातार भाजपा ने नीतीश के साथ का लाभ उठाया. बीच के दो मौकों को छोड़ कर बाकी समय चेरी के रूप में भाजपा नीतीश कुमार के साथ ही सटी रही.

नीतीश का साथ पाने को सभी बेचैन

यही वजह है कि भाजपा नीतीश कुमार को किसी भी हाल में अपने साथ रखना चाहती है तो आरजेडी उन्हें अपने साथ लाने का बार-बार कोशिश करता है. इसे इसी बात से समझा जा सकता है कि नीतीश कुमार और तेजस्वी यादव की सरकारी कामकाज के सिलसिले में हुई महज 40 मिनट की मुलाकात के बाद किस तरह बिहार में राजनीतिक भूचाल आ गया. लोग नीतीश के फिर पाला बदल की अटकलें लगाने लगे. सियासी सरगर्मी भी अचानक उफान मारने लगी. भाजपा नेताओं की बैठकें होने लगीं. लालू यादव ने अपने सांसदों-विधायकों की बैठक बुला ली. बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा को भागे-भागे बिहार आना पड़ा. उनकी प्राथमिकता वैसे तो बिहार में स्वास्थ्य परियोजनाओं की थी, लेकिन दो दिनों की यात्रा में उन्होने दो बार नीतीश कुमार से मुलाकात करना जरूरी समझा.

नीतीश के बयान के बाद थमा बवाल

यह तो शुक्र मनाइए कि नीतीश कुमार ने जेपी नड्डा की मौजूदगी में अपने बारे में सफाई दे दी. वर्ना सस्पेंस अब भी बरकरार रहता. नीतीश ने जब साफ कह दिया कि अब वे पुरानी गलती नहीं दोहराएंगे, तब जाकर भाजपा की सांस लौटी और आरजेडी को एहसास हुआ कि उसके सपनों पर पानी फिर गया है. नीतीश कुमार भले लालू यादव और उनके परिवार के बारे में व्यक्तिगत टिप्पणियां करते रहते हैं, लेकिन तेजस्वी यादव ने कभी उनके प्रति वैसा रुख नहीं अपनाया. इसकी वजह यही रही है कि कभी नीतीश से हाथ मिलाना हो तो उन्हें शर्मिंदगी न महसूस करनी पड़े. तेजस्वी यादव को भी अब लग गया है कि बार-बार वे बिहार में जिस खेला की बात करते हैं, वह होना अब संभव नहीं. यही वजह है कि अब उन्हें यह कहने में संकोच नहीं होता कि दो बार उन्होंने नीतीश को राजनीतिक जीवन दान दिया है. अब वे बूढ़े हो गए हैं. बिहार उनसे नहीं संभल रहा है.

नीतीश की रणनीति के आगे सब फेल

हारती बाजी को अपनी ओर मोड़ना कोई नीतीश कुमार से सीखे. जातीय समीकरण से कामयाबी का मंसूबा पालने वाले दलों को नीतीश ने बता दिया कि इसके बिना भी कामयाब हुआ जा सकता है. लव-कुश समीकरण के 10-12 प्रतिशत वोटों से नीतीश दो दशक तक लगातार सीएम नहीं रह सकते थे. इसलिए नीतीश ने ऐसा समीकरण बनाया, जिसमें हर जाति के थोड़े-बहुत वोट उनको मिलते रहें. पसमांदा मुसलमानों की श्रेणी नीतीश ने बनाई और पिछड़े तबके के मुसलमानों को अपने पाले में किया. दलित-महादलित कैटगरी बना कर नीतीश ने दलित वोट साधे. राजनीति में वर्चस्व रखने वाली भूमिहार जाति को तो शुरू से ही उन्होंने अपना बनाए रखा. आज ललन सिंह, विजय चौधरी और अनंत सिंह सरीखे कद्दावर और जनाधार वाले भूमिहार नेता नीतीश कुमार के ही साथ हैं. राजपूतों के लिए उन्होंने आनंद मोहन और उनके परिवार को चुना. ब्राह्मण वोटों के लिए संजय झा को जेडीयू का कार्यकारी अध्यक्ष बनाया. कुशवाहा समाज को साथ रखने के लए उपेंद्र कुशवाहा की राज्यसभा उम्मीदवारी पर कोई अड़ंगा नहीं डाला. भगवान सिंह कुशवाहा को एमएलसी बनाया. उमेश कुशवाहा तो जेडीयू के प्रदेश अध्यक्ष ही हैं. यानी नीतीश ने जातीय समीकरण भी बिना आरजेडी की तरह बदनाम हुए बना लिया है. नीतीश पर कोई जातीय ठप्पा भी नहीं लगा सकता है, लेकिन आरजेडी पर तो यादवों का ठप्पा शाश्वत है. मुसलमानों को लेकर भी आरजेडी बदनाम है.

नीतीश की शागिर्दी के लिए सभी राजी

पिछले विधानसभा चुनाव में नीतीश कुमार के जेडीयू को विधानसभा में 43 सीटें मिलीं तो विरोधी उनका पराभव मान कर इतराने लगे थे. यह नीतीश कुमार का राजनीतिक कौशल ही था कि उन्होने अपनी पार्टी को फिर से पुनर्जीवित कर दिया. हालिया लोकसभा चुनाव में बीजेपी के बराबर 12 सीटें लाकर नीतीश ने साबित कर दिया है कि उनका जादू अभी खत्म नहीं हुआ है. उनके राजनीतिक कौशल का परिणाम ही था कि 43 विधायकों के बावजूद उनसे अधिक सीटें लाने वाले आरजेडी और बीजेपी ने उनका शागिर्द बनना मुनासिब समझा. अब तो नीतीश बिहार की राजनीति के हाट केक बन गए हैं. भाजपा उन्हें छोड़ने को तैयार नहीं तो आरजेडी उनके लिए 24 घंटे पलक पांवड़े बिछाए रहता है. अब यह नीतीश पर निर्भर है कि वे किसके साथ जाएंगे. पर, इतना तय है कि वे जिधर होंगे, सरकार उसी की बनेगी.

ब्लॉगर के बारे में

ओमप्रकाश अश्क

प्रभात खबर, हिंदुस्तान और राष्ट्रीय सहारा में संपादक रहे. खांटी भोजपुरी अंचल सीवान के मूल निवासी अश्क जी को बिहार, बंगाल, असम और झारखंड के अखबारों में चार दशक तक हिंदी पत्रकारिता के बाद भी भोजपुरी के मिठास ने बांधे रखा. अब रांची में रह कर लेखन सृजन कर रहे हैं.

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एडवोकेट अरविन्द जैन

संपादक, बुंदेलखंड समाचार अधिमान्य पत्रकार मध्यप्रदेश शासन

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