Shivbhanu used to win elections by getting his opponents a government job | विरोधी की सरकारी नौकरी लगवाकर चुनाव जीत जाते थे शिवभानु: एमपी के उन आदिवासी नेताओं के किस्से, जिनकी धमक रही मगर चमक नहीं सके – Madhya Pradesh News

मध्यप्रदेश के आदिवासी नेता शिवभानु सिंह सोलंकी 1980 में अर्जुन सिंह सरकार में उपमुख्यमंत्री थे। वे धार जिले की मनावर विधानसभा सीट से लगातार चुनाव जीतते थे। एक पत्रकार ने उनसे इसका राज पूछा तो उन्होंने बड़ा दिलचस्प जवाब दिया।
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सोलंकी ने कहा कि जब उनके क्षेत्र में विरोधी दल का कोई प्रतिभाशाली युवक विधायक के चुनाव के लिए तैयार हो रहा होता है तो वे अपने समर्थकों के माध्यम से उसकी सरकारी नौकरी लगवा देते हैं।
दैनिक भास्कर के साथ ये किस्सा साझा करने वाले वरिष्ठ पत्रकार दीपक तिवारी कहते हैं, ‘इसी बात से समझा जा सकता है कि मप्र में 22 फीसदी आबादी होने के बाद भी राजनीति में आदिवासी नेतृत्व क्यों नहीं उभरा।’
मौजूदा दौर में भी बीजेपी और कांग्रेस एमपी में आदिवासी नेतृत्व को उभारने का दावा जरूर करती हैं, लेकिन आबादी के अनुपात में आदिवासी नेताओं को उतनी तवज्जो नहीं मिल रही है। 13 दिन के लिए मप्र को आदिवासी मुख्यमंत्री जरूर मिला था मगर उसके बाद किसी भी पार्टी ने इस वर्ग को चुनावों में उतना मौका नहीं दिया।
विश्व आदिवासी दिवस के मौके पर पढ़िए, ऐसे ही तीन आदिवासी नेताओं के चर्चित किस्से..जिनकी सियासी धमक तो थी, मगर चमक नहीं बिखेर सके।
किस्सा 1: जमुना देवी ने कहा था- दिग्विजय के तंदूर में जल रही हूं
ये बात 1998 की है। दिग्विजय सिंह को गुटीय संतुलन साधने के लिए आदिवासी नेता जमुना देवी को उपमुख्यमंत्री बनाना पड़ा था। दरअसल, दिग्विजय सिंह ने अपने पहले कार्यकाल(1993-1998) में भी दो डिप्टी सीएम बनाए थे। एक सुभाष यादव, दूसरे प्यारेलाल कंवर।
दूसरे कार्यकाल (1998-2003) में उन्होंने सुभाष यादव के साथ जमुना देवी को डिप्टी सीएम बनाया था और उन्हें महिला बाल विकास विभाग का जिम्मा सौंपा था। जमुना देवी डिप्टी सीएम थीं, मगर केवल नाम की। सारा कंट्रोल दिग्विजय के ही हाथ था।
इससे जमुना देवी दिग्विजय से खफा रहती थीं, लेकिन दिग्विजय जमुना देवी को विधानसभा में भी और बाहर भी बुआजी कहकर उनकी नाराजगी को दूर करने की कोशिश करते थे। एक बार अपनी अनदेखी से खफा जमुनादेवी ने यहां तक कह दिया कि मैं दिग्विजय के तंदूर में जल रही हूं।
दरअसल उस समय दिल्ली के कांग्रेस नेता सुशील शर्मा ने अपनी पत्नी और कांग्रेस नेता नैना साहनी की हत्या कर शव को तंदूर में जला दिया था। इसी बात को आधार बनाकर जमुना देवी ने ये बयान दिया था। उस दौर में दिग्विजय सरकार के बारे में कहा जाता था कि उसे कमलनाथ कंट्रोल करते थे।
सारे बड़े विभाग जैसे नगरीय प्रशासन, पीडब्लूडी, ऊर्जा सभी कमलनाथ गुट के मंत्रियों के पास हुआ करते थे। जमुना देवी इस वजह से खफा तो रहती थीं, मगर उनके मन में सीएम न बन पाने की टीस भी थी। उन्होंने इसे कई बार सार्वजनिक भी किया था।
वे अपने सहयोगी और डिप्टी सीएम सुभाष यादव के साथ मिलकर दिग्विजय को घेरने का मौका नहीं छोड़ती थीं। मप्र से छत्तीसगढ़ अलग होने के बाद 2001 में खरगोन में हुए आदिवासी सम्मेलन में उन्होंने और सुभाष यादव ने बिजली के मुद्दे पर अपनी ही सरकार को सवालों के घेरे में खड़ा किया था।
जब दिग्विजय सिंह दलित एजेंडा लेकर आए तो उसका जमुना देवी ने विरोध किया। जमुना देवी का कहना था कि आदिवासियों की पहचान अलग है। उन्हें अलग रखिए, उन्हें दलित मत मानिए। यह मुद्दा बहुत गर्माया था।। इस बात को उन्होंने सार्वजनिक रूप से और कैबिनेट में भी उठाया था।
किस्सा 2: प्रदेश को दूसरा आदिवासी मुख्यमंत्री मिलते-मिलते रह गया

ये बात 1980 की है। मप्र के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने 320 में से 246 सीटें जीती थीं। उस समय अविभाजित मप्र में विधानसभा की 320 सीटें थीं। मुख्यमंत्री पद के लिए अर्जुन सिंह और आदिवासी नेता शिवभानु सोलंकी में कड़ी टक्कर थी। तीसरे दावेदार थे कमलनाथ।
विधायक दल की बैठक में मुख्यमंत्री का नाम तय किया जाना था। आलाकमान ने पार्टी का पर्यवेक्षक बनाकर प्रणव मुखर्जी को भेजा था। प्रणव मुखर्जी ने जब विधायक दल की बैठक में विधायकों की राय जानी तो ज्यादातर विधायकों ने शिवभानु सोलंकी के पक्ष में हामी भरी।
अर्जुन सिंह और सोलंकी का समर्थन करने वाले विधायकों की संख्या बराबर थी। तब प्रणव मुखर्जी ने तीसरे दावेदार कमलनाथ और उनके समर्थक विधायकों से राय पूछी । कमलनाथ ने अपना समर्थन अर्जुन सिंह को दे दिया। 9 जून 1980 को अर्जुन सिंह मप्र के मुख्यमंत्री बने।
शिवभानु सोलंकी को डिप्टी सीएम बनाया गया। वीरेंद्र कुमार सखलेचा के बाद वे मप्र के दूसरे डिप्टी सीएम थे। यदि शिवभानु सोलंकी मुख्यमंत्री बनते तो वे नरेशचंद्र के बाद दूसरे आदिवासी सीएम होते। डिप्टी सीएम के साथ शिवभानु को वित्त विभाग दिया गया था।
उनके बारे में एक चर्चित किस्सा ये भी है कि वे अपने विरोधी दल के उभरते नेताओं को सरकारी नौकरी देकर चुनाव जीत जाते थे। दरअसल, एक पत्रकार ने उनसे पूछा था कि उनके लगातार चुनाव जीतने का क्या राज है। तब उन्होंने कहा था कि जब वे देखते हैं कि विरोधी दल का युवा नेता विधायक का चुनाव लड़ने की तैयारी कर रहा है तो वे उससे संपर्क करते थे और उसकी नौकरी लगवाते थे। उन्होंने विधायक के उम्मीदवार को मंडी निरीक्षक बनवाया था।
उनका एक और किस्सा चर्चित है। एक बार जनसंपर्क संचालक सुदीप बनर्जी उनके पास अपने विभाग का बजट बढ़वाने के लिए गए तो सोलंकी ने उन्हें टका सा जवाब दे दिया। उन्होंने कहा- आप लोग कुछ प्रेस नोट निकालने और मुख्यमंत्री की छवि चमकाने के अलावा करते ही क्या है?
सोलंकी ने ये भी कहा था कि मप्र की आबादी 4 करोड़ है और प्रति व्यक्ति एक रु. के हिसाब से आपके विभाग का बजट पर्याप्त है। उस समय जनसंपर्क विभाग का बजट करीब 4 करोड़ रु. ही था। शिवभानु सोलंकी 1985 का चुनाव भी जीते थे। उस समय मोतीलाल वोरा को मुख्यमंत्री बनाया गया, लेकिन उन्हें डिप्टी सीएम का पद नहीं दिया गया था।
किस्सा 3: जब 13 दिन के लिए बने एमपी के इकलौते आदिवासी सीएम

ये बात 1969 की है। राजमाता विजयाराजे सिंधिया ने कांग्रेस पार्टी छोड़ दी थी। वे उस समय के मुख्यमंत्री डीपी मिश्रा से बेहद नाराज थी। इसके बाद जब विधानसभा चुनाव हुए तब विजयाराजे सिंधिया गुना से निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ा और भारी बहुमत से चुनाव जीतीं।
दूसरी तरफ तत्कालीन मुख्यमंत्री डीपी मिश्रा की वजह से कांग्रेस में कलह शुरू हो गई थी। एक दिन अचानक विंध्य से आने वाले गोविंदनारायण सिंह के नेतृत्व में कांग्रेस के 35 विधायकों ने बगावत कर दी और वे विजयाराजे सिंधिया के खेमे में चले गए। सिंधिया ने देरी न करते हुए कांग्रेस का तख्ता पलट कर दिया और डीपी मिश्रा की सरकार गिर गई।
जनसंघ, प्रजा सोशलिस्ट पार्टी और कांग्रेस के दलबदलू विधायकों को मिलाकर संविद सरकार का गठन किया गया। राजमाता को मुख्यमंत्री बनने का ऑफर दिया, मगर उन्होंने बागी गोविंदनारायण सिंह को सीएम बना दिया। हालांकि, गोविंदनारायण सिंह केवल 19 महीने ही सरकार चला सके।
आपसी मतभेदों के चलते 12 मार्च 1969 को उन्होंने सीएम पद से इस्तीफा दे दिया। 13 मार्च को उनकी जगह पुसौर( अब छत्तीसगढ़) विधानसभा सीट से विधायक नरेशचंद्र को सीएम बनाया गया। मगर, 13 दिन बाद ही उनकी सरकार भी अल्पमत में आ गई। 25 मार्च को उन्होंने इस्तीफा दे दिया।
दरअसल, सीएम पद से इस्तीफा देने के बाद गोविंदनारायण सिंह ने फिर कांग्रेस नेताओं से संपर्क करना शुरू कर दिया था। उन्होंने अर्जुन सिंह से भोपाल स्थित उनके निवास पर मुलाकात की थी। उन्होंने कहा कि वे मौजूदा सरकार से तंग आ चुके हैं और कांग्रेस में वापस लौटना चाहते है।
अर्जुन सिंह उनका पैगाम लेकर आलाकमान से मिले और कुछ हफ्ते बाद उनकी कांग्रेस में वापसी हो गई थी। नरेशचंद्र के इस्तीफा देने के बाद फिर कांग्रेस की सरकार बनी और डीपी मिश्रा की जगह श्यामाचरण शुक्ल मप्र के सीएम बने।

गोविंदनारायण सिंह(बाएं) और नरेशचंद्र(दाएं)। नरेशचंद्र को भनक नहीं लगी थी कि गोविंदनारायण सिंह इस्तीफा देने के बाद कांग्रेस में वापसी करेंगे।
बीजेपी-कांग्रेस ने आदिवासी नेतृत्व को उभरने नहीं दिया
मध्यप्रदेश की जनसंख्या में 21.2 फीसदी की हिस्सेदारी आदिवासी समुदाय की है। विधानसभा की 230 में से 47 सीटें आदिवासियों के लिए रिजर्व हैं। मप्र का राजनीतिक इतिहास रहा है कि आदिवासी वर्ग जिस पार्टी को समर्थन देता है वो सत्ता में आती है। ऐसे में आदिवासी समुदाय से आने वाले नेताओं को राजनीति में उतनी तवज्जो क्यों नहीं मिली?
वरिष्ठ पत्रकार दीपक तिवारी कहते हैं कि बीजेपी और कांग्रेस दोनों दलों ने आदिवासी नेतृत्व को साजिश के तहत आगे बढ़ने नहीं दिया। वे कहते हैं कि कांग्रेस में तो अपर कास्ट की राजनीति हावी रही है। वहीं बीजेपी ने ओबीसी वर्ग को तवज्जो दी मगर वहां भी अपर कास्ट को लेकर एक माइंडसेट बना है।
जब भी कांग्रेस और बीजेपी में आदिवासी नेतृत्व उभरा या तो उसे डॉमिनेट किया या फिर तवज्जो नहीं दी। शहडोल सांसद हिमाद्री सिंह का उदाहरण देते हुए वे कहते हैं कि उनमें कांग्रेस का आदिवासी चेहरा बनने की संभावना थीं। मगर कांग्रेस ने कोई तवज्जो नहीं दी। आखिरकार उन्होंने बीजेपी जॉइन कर ली। वैसे ही हीरा सिंह मरकाम जिन्होंने गोंडवाना गणतंत्र पार्टी बनाई वो बीजेपी से पहला चुनाव जीते थे, लेकिन उनका मुखर होना पार्टी को रास नहीं आया।

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