मध्यप्रदेश

I am speaking from Madhya Pradesh… | विपक्ष की मदद करके काटजू को चुनाव हरवा दिया

दीपक तिवारी। भोपाल16 मिनट पहले

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‘कैलाश नाथ काटजू के मुख्यमंत्री रहते हुए पांच साल बाद फरवरी, 1962 में जब राज्य का दूसरा चुनाव हुआ तब विधानसभा में छत्तीसगढ़ के इलाके को मिलाकर 288 सीटें थीं। इस चुनाव में पहली बार जनसंघ (आज की भाजपा) का वोट प्रतिशत लगभग दोगुना होकर 17 प्रतिशत पर पहुंच गया। वहीं कांग्रेस का पिछले 1957 के चुनाव के 48 प्रतिशत से घटकर 39 प्रतिशत रह गया। इसका एक कारण कांग्रेस के भीतर की गुटबाज़ी थी और दूसरा … जबलपुर का 1961 का उषा भार्गव कांड। जिसने प्रदेश में पहली बार साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण की राह बनाई और जनसंघ को आधार दिया।

कांग्रेस नेताओं में तब एक-दूसरे से राजनैतिक बदला लेने की इतनी प्रबल इच्छाशक्ति थी कि मुख्यमंत्री कैलाश नाथ काटजू को जावरा में जनसंघ के उम्मीदवार लक्ष्मीनारायण पांडे की मदद करके हरा दिया गया। मज़ेदार बात यह रही कि काटजू को हराने वाले जनसंघ के नेता पांडे, खुद लगातार अपनी पार्टी की गुटबाज़ी का शिकार रहे। कहते हैं कि मंदसौर के ही सुंदरलाल पटवा तथा वीरेंद्र सखलेचा के कारण कभी उन्हें न तो बड़ा पद दिया गया, न ही पार्टी में महत्व।

1962 का वह चुनाव पूरे देश में कई दशकों तक इसलिए याद किया गया कि एक सिटिंग चीफ मिनिस्टर चुनाव हार गया। तब खींच-खांचकर कांग्रेस की सरकार तो बनी पर काटजू मुख्यमंत्री नहीं बने। अपने मित्र की हार से पंडित नेहरू बहुत नाराज हुए। जांच कमेटी बनाई गई और तय किया गया कि इसका बदला लिया जाएगा।….

लेकिन तब एक बार फिर कांग्रेस के सामने किसे मुख्यमंत्री बनाया जाए , यह संकट आ गया। सत्ता संघर्ष बढ़ा… तो पांच साल पुराने किरदार फिर सक्रिय हुए लेकिन तब तक कुछ नए जुड़ चुके थे .. या जुड़ने वाले थे। उनमें से एक थे राजनीति के चाणक्य पंडित द्वारका प्रसाद मिश्र। मिश्र सागर विश्विद्यालय में कुलपति थे और पुराने मध्यप्रदेश के गृहमंत्री रह चुके थे। नेहरू के विरोधी होने के कारण मंत्री पद और कांग्रेस से इस्तीफा देकर 1951 से वनवास काट रहे थे।

इस बार सभी कांग्रेस नेता इस बिंदु पर एकमत थे कि पंडित मिश्र किसी भी तरह मुख्यमंत्री न बन पाएं। लेकिन मिश्र राजनीति के चतुर खिलाड़ी थे। उन्होंने सागर में रहते हुए ही, वहां की जिला कांग्रेस कमेटी से पहले ही ‘रहली’ से चुनाव लड़ने का प्रस्ताव पारित करवा लिया था। वे जानते थे कि प्रदेश के नेता उन्हें स्वीकारेंगे नहीं, इसलिए उन्होंने उमाशंकर दीक्षित के माध्यम से जवाहरलाल नेहरू से अपने संबंध प्रगाढ़ किए।

पंडित नेहरू उन दिनों चीन युद्ध की समस्या से जूझ रहे थे। ऐसे में उन्होंने पंडित मिश्र को इंदिरा गांधी से मिलने को कहा। इंदिरा गांधी उन दिनों चीन हमले के विरुद्ध बनी केंद्रीय नागरिक परिषद की अध्यक्ष थीं। मिश्र की ही सलाह पर तब इंदिरा गांधी ने लोगों में देशभक्ति के जज्बात जगाने के लिए सिनेमा हालों के भीतर राष्ट्रगान गाए जाने की प्रथा आरम्भ करवाई।

इस बीच मध्यप्रदेश में पंडित मिश्र ने इस तरह बिसात बिछाई की तखतमल जैन मुख्यमंत्री न बन पाएं और फिर से भगवंत राव मंडलोई को मुख्यमंत्री बना दिया जाए। इस बार मंडलोई 18 महीनों के लिए मुख्यमंत्री बने और फिर अक्टूबर 1963 में कामराज प्लान के लागू होने के कारण उन्हें इस्तीफा देना पड़ा। अब तक काटजू नरसिंहगढ़ का उपचुनाव लड़ कर विधानसभा में पहुंच चुके थे। इसके साथ ही पंडित मिश्र भी कसडोल (जो अब छत्तीसगढ़ में है) …. से उपचुनाव जीतकर विधानसभा में आ चुके थे।

मंडलोई के हटते ही कांग्रेस हाई कमान ने तय किया कि काटजू की हार का बदला उन्हें फिर से मुख्यमंत्री बना कर लिया जाए। पंडित मिश्र इस प्लान में हाई कमान के साथ खड़े रहे लेकिन बाकी गुटों को यह मंजूर नहीं था। इस पर मिश्र ने कहा कि यदि काटजू को सर्वसम्मति से मुख्यमंत्री चुना जाता है तो उन्हें खुशी होगी लेकिन चुनाव होता है तो वह भी एक उम्मीदवार हैं।

आखिर, विधायक दल के चुनाव में पंडित मिश्र विजयी हुए। मुख्यमंत्री के तौर पर द्वारका प्रसाद मिश्र ने जो प्रदेश के प्रशासनिक तंत्र में परंपराएं विकसित की वे आज तक जारी है। उन दिनों सरकार का सचिवालय पुराने भोपाल के भवनों में चलता था। मिश्र ने सबसे पहले वल्लभ भवन का निर्माण कराया और नए भोपाल के विस्तार के लिए जमीनों का चयन किया। मिश्र ने वल्लभ भाई पटेल के साथ बहुत काम किया था इसलिए नए सचिवालय का नाम वल्लभ भवन रखा गया।

(लेखक माखनलाल चतुर्वेदी विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति हैं।)

वल्लभ भवन बनने के अलावा मध्यप्रदेश में क्या – क्या रचा? …. सुनिए कल, चौथे भाग में…

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एडवोकेट अरविन्द जैन

संपादक, बुंदेलखंड समाचार अधिमान्य पत्रकार मध्यप्रदेश शासन

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