दंगों में लुटती बस्ती और लाशों के ढेर पर पनपते प्यार की कहानी है ‘आखिरी स्टेशन’

शहादत की कहानी ‘आखिरी स्टेशन’ समाज में फैले धर्म, जाति और साम्प्रदायिक विद्वेष की कुरूपता को दिखाया गया है. कहानी का पात्र एक नौजवान एक तरफ देश में राजनीति के प्रति लोगों को जागरुक कर रहा है, वहीं जाति के चक्कर में अपने प्यार को त्याग देता है. कहानी चुनाव, दंगे और प्यार से होते हुई कई तरह के सवाल छोड़ जाती है. प्रस्तुत है कहानी ‘आखिरी स्टेशन‘-
हांफने के तेज शोर, भागने-दौड़ने की आवाजों और घरेलू सामानों की उठक-पठक से जब उसकी आंखें खुली तो कमरे में घुप अंधेरा था. बिस्तार पर लेटे-लेटे ही उसने सिर के ऊपर दीवार में लगे बल्ब की चटकनी दबाई, तो एकाएक हुए तेज उजाले से उसकी आंखें चौंधिया गईं. उसने दोनों हाथों से आंखों को मला. कई बार पलकों को झपका और फिर अपने पास रखी हाथ घड़ी को उठाकर देखा. सुबह के तीन बजकर पांच मिनट का समय हो रहा था.
बाहर शोर था और उसकी आंखें नींद से भरी थी. वह पीछे को लेट गया. तभी ट्रेन के छूट जाने और खुद के अकेले रह जाने का ख्याल उसके दिमाग में दौड़ने लगा. अपने साथियों से बिछड़ने और उसके बाद शुरू हुआ परेशानियों का वह सिलसिला उसके आंखों के सामने तैरने लगा.
लेटे-लेटे उसने एक-दो बार इधर-उधर करवट बदली और फिर अच्छे से पूरी तरह आंखें खोलकर कमरे का जायज़ा लिया. उसका पलंग, जिस पर वह लेटा था कमरे के बीचो-बीच था. उसके सामने वाली दीवार में छोटा-सा दरवाजा था. दरवाजे से हटकर बगल वाली दीवार से लगी अलमारी खड़ी थी. उसमें कुछ कपड़े और धार्मिक ग्रंथ रखे थे. ग्रंथों में मुख्य रूप से वेद, पुराण और रामचरितमानस की जिल्दें दिखाई दे रही थीं. बाईं दीवार से लगी दो कुर्सियां रखी थीं और उनके ऊपर एक खिड़की बनी थी.
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एकाएक किसी भारी-भरकम वस्तु के छूट कर गिरने जैसा धमाका हुआ. रात की खामोशी में काफी देर तक उस धमाके का शोर अपनी प्रतिध्वनि के साथ लगातार गूंजता रहा. कमरे के अपने इस निरीक्षण के दौरान वह बाहर हो रहे शोर को भूल ही गया था. उसे फिर से वही आवाज सुनाई देने लगी. वह बिस्तर से उठा और खिड़की के पास जाकर खड़ा हो गया… उसने बाहर झांका… देखने के लिए… कि वहां चल क्या रहा है?
बाहर लूट हो रही थी. दंगें में अपना घर-बार छोड़कर भागे लोगों के घरों को उनके ही पड़ोसी लूट रहे थे. वे लूट रहे थे… फ्रिज, वॉशिंग मशीन, सिलाई मशीन, प्रेस, पलंग, चारपाई, बैड, सोफा, कुर्सी, मेज, अलमारी, कपड़े, बर्तन, खिलौने, रेडियो, टीवी, सीडी, रजाई-गद्दे और बक्सें… वे लूट रहे थे वह सब… जो ज़िंदगी जीने की बुनियादी जरूरियात हैं… वे लूट रहे थे… एक दुनिया… जिसे कभी किसी ने बड़े प्यार से सजाया और बसाया था.
पश्चिम में डूबता चांद खिड़की से झांकता हुआ उसका चेहरा रोशन कर रहा था. उसकी नींद की खुमारी दूर हो गई. चांद की सफेद रोशनी में अपने सामने होती उस अप्रत्याशित लूट को देखकर वह मुस्कुराया. हालांकि उसे भी नहीं पता था कि वह मुस्कुरा क्यों रहा है… पर उसके होंठ फैल गए… उसकी हँसने की अनिच्छा के विरुद्ध… वे मुस्कान के रूप में खिल रहे थे.
उसने उस बिन बुलाई मुस्कान को अपनी बची-खुची नींद की अलसाई में ली गई अंगड़ाई के साथ गायब कर दिया. वह मुड़ा और दरवाजे से बाहर निकल गया. चलते हुए उसने अपनी सोच को शब्द देते हुए खुद से कहा, “चलो, हम भी लूटते हैं. अगर कुछ मिल जाए? अपने मतलब का.”
जिस कमरे में वह रात बिता रहा था वह रेलवे स्टेशन के पास बसे गांव से महज दस-पंद्रह मिनट की दूरी पर था. उसे नहीं पता था कि यह गांव कौन-सा है और इस स्टेशन का नाम क्या है? कल जब दिल्ली जाने वाली उसकी ट्रेन छूट गई, जो आखिरी न होने के बाद भी आखिरी साबित हुई थी तो, उसके उन अनजानों साथियों में से एक ने, जिनके साथ वह पिछले तीन महीने से रह रहा था, उसे स्टेशन के पास के गांव के इस कमरे को रात बिताने के लिए दे दिया था. ताकि वह सुबह उठकर बिना हड़बड़ी के दिल्ली जाने वाली पहली ट्रेन पकड़ सके. जहां से उसे अपने गृह-राज्य जाना था.
वह मराठी युवक था. कॉलेज में राजनीति शास्त्र की पढ़ाई करता था. साथ ही वह अति-राष्ट्रवादी राजनीतिक दल का सदस्य भी था. इसलिए जब राष्ट्रीय चुनाव की तारीख नजदीक आने लगी तो उस दल ने संसद की सबसे ज्यादा सीटों वाले हिंदी राज्यों में अपनी गतिविधि बढ़ाने पर जोर देना शुरू कर दिया. वहां अपने संगठन और कार्यकर्ताओं को चुस्त-दुरुस्त करने के लिए उसे समर्पित और जोशीले प्रचारकों की जरूरत थी. जो न केवल राजनीति का गुणा-भाग जानते हों, साथ ही बोलना भी जानते हों. उनमें लोगों को जोड़ने की काबलियत हो और निष्क्रिय पड़े संगठन और कार्यकर्ताओं में फिर जान फूंक सकते हो. उसमें ये सारी खासियत थी. वह मराठी के साथ-साथ अंग्रेजी और हिंदी का भी अच्छा ज्ञान रखता था. राजनीति शास्त्र का छात्र होने के कारण उसे राजनीति की भी समझ थी. साथ ही वह बोलने में भी माहिर था. उसकी इन विशेषताओं को ध्यान में रखते हुए ही दल के प्रदेश अध्यक्ष ने जब हिंदी राज्यों में प्रचार के लिए भेजे जाने वाली टीमों का चुनाव किया तो उनमें से एक टीम में उसे भी शामिल कर लिया.
जिस टीम में वह शामिल था वह उत्तर प्रदेश राज्य में आई थी. आते ही वह अपने काम में जुट गई. उसने गांव, कस्बों और छोटे शहरों में घूम-घूमकर पार्टी कार्यकर्ताओं से मिलना शुरू किया. छोटी-छोटी वर्कशॉप आयोजित की. उनमें पार्टी कार्यकर्ताओं को एकजुट किया. उन्हें चुनाव की रणनीति समझाई. उन्हें मौजूदा सरकार की नाकामियों और अपनी पार्टी के एजेंडे को आम जन के बीच लेकर जाने के लिए कहा. वह उन्हें समझाते कि किस तरह वे पार्टी की घोषणाओं को लोगों तक पहुंचाएं और उन्हें पार्टी के लिए वोट करने के लिए प्रेरित करें. पूरे प्रदेश में इस तरह के कार्यक्रमों को करने में उन्हें तीन महीने लग गए. इन तीन महीनों में उन्होंने निष्क्रिय पार्टी संगठन को फिर से सक्रिय कर दिया था और निराश पार्टी कार्यकर्ताओं में फिर से उत्साह भर दिया था.
काम खत्म होने के बाद वह वापस लौटने लगे. लेकिन उनके लौटने से पहले ही दंगे भड़के उठे. वह भी ऐसे कि एक बार शुरू होने के बाद उसने हफ्ते भर से पहले रुकने का नाम नहीं लिया. हालांकि किसी को भी नहीं पता था कि आखिर दंगा हुआ किस बात पर था? लेकिन देखते ही देखते पूरा इलाका दंगे की चपेट में आ गया. लोग गांवों से रातों-रात पलायन कर गए. बसे-बसाए घर उजड़ गए. हँसते-खेलते परिवार बिछुड़ गए. खाली घर जलने लगे और दिन दहाड़े कत्ल किये जाने लगे. भागने वालों में किसी को कुछ पता नहीं था कि जाना कहां है? किधर जाना है? बस जाना है. अगर ज़िंदा रहना है तो जाना ही है. जिसकी जान बच जाती वह ईश्वर का शुक्र अदा करता और फिर राहत शिविरों में अपने अन्य परिजनों को ढूंढ़ता फिरता.
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एक हफ्ते तक दंगे होते रहे. शहरों में कर्फ्यू लगा दिया गया. पूरी परिवहन व्यवस्था ठप पड़ गई. बस, ट्रेन सब बंद हो गईं. उन हालात में वे एक पार्टी कार्यकर्ता के खाली मकान में रहे थे. हफ्ते भर बाद जब हालात कुछ काबू में आएं और परिवाहन साधनों का पहियां घूमा तो उन्होंने राहत भरी सांस ली. उस कार्यकर्ता ने जल्दी ही पता लगा लिया कि दिल्ली जाने वाली ट्रेन कब छूटेगी. वह रात में दस बजे जाने वाली थी. उसने उनके स्टेशन तक पहुंचने का पूरा इंतज़ाम कर दिया था. परंतु किसी कारणवश वह टीम के अन्य साथियों के साथ स्टेशन नहीं पहुंच सका. रेल उसका इंतजार किए बिना उसके साथियों को लेकर दिल्ली की ओर प्रस्थान कर गई. वह पीछे अकेला छूट गया.
उस व्यक्ति ने, जो बाद में उसे स्टेशन पर छोड़ने आया था, कहा, “कोई बात नही… तुम कल चले जाना… तब तक आराम करो… कल तुम्हें पहली ट्रेन से रवाना कर देंगे.”
इसके बाद वह उसे वापस शहर नहीं ले गया. वह उसे शहर से अगले स्टेशन पर ले आया. उसे नहीं पता था कि वह स्टेशन शहर से कितनी दूर था. पर वह उसके पीछे बीस मिनट तक मोटर साइकिल पर बैठा रहा था. जब उसने मोटर साइकिल रोकी और उसकी लाइट बंद की तो वे एक सुनसान जंगल में थे. उसने उसे अपने पीछे आने के लिए कहा और फिर इस एक कमरे के घर का दरवाज़ा खोलकर उसने कहा, “तुम रात यहां बिताओ. स्टेशन यहां से थोड़े फासले पर है… मैं सुबह आऊंगा… गाड़ी के आने से पहले… तुम्हारा टिकट भी लेता आऊंगा… अब तुम आराम करो.”
उसके जाने के बाद वह पलंग पर बैठ गया. उसके दिमाग में अजीबो-गरीब ख्याल दौड़ने लगे. फिर उसने मोटर साइकिल के स्टार्ट होने की आवाज़ सुनी. पहले तेज और फिर धीमे होती हुई, जो कुछ ही देर में पूरी तरह बंद हो गई. मोटर साइकिल के जाने की आवाज के बंद होने के बाद वह बेसुध-सा पीछे को लेट गया और उसे नींद आ गई. उसके बाद अब उसकी आंखें खुली थी. वह खाली सुनसान गलियों में से होकर गुजर रहा था. जले घर, टूटी दरों-दिवारों और खाली पड़े दालानों को देखता हुआ. वहां कोई आवाज नहीं थी. सिवाएं उसके चलने और सांस लेने के.उसने आधा गांव पार कर लिया और उस स्थान पर जा पहुंचा जहां लूट हो रही थी.
लोग लूट रहे थे गैस चूल्हा और तकिया. एक आदमी चारपाई उठाकर ले जा रहा था, तो दूसरा टीवी. तीसरा गैस सिलेंडर तो चौथा दीवार घड़ी. कोई कपड़ों से भरा बक्सा उठाएं जा रहा था. दो आदमी कपड़े रखने की अलमारी पकड़े जा रहे थे तो कोई मोटर साइकिल और साइकिल उठाएं ले जा रहा था. कोई गाय, भैंस, बकरी और मुर्गी पकड़ के, उठाए जा रहा था तो कोई छत के पंखें. मसलन सब के सब कुछ ना कुछ लूट रहे थे. और अगर किसी को लूटने के लिए कुछ नहीं मिल रहा था तो वह उन उजड़ चुके घरों के दरवाज़े ही उखाड़ने लगा था.
वह गली से बाहर निकलकर उन घरों की तरफ मुड़ा, जिनमें लूट हो रही थी. चलते-चलते अचानक उसे अपनी चप्पलें जमीन पर चिपकती महसूस हुई. उसने नीचे देखा तो गली में जगह-जगह खून, टूटी चप्पलें, औरतों के दुप्पटें और हाथों की कटी उंगलियां, पैर के अंगूठे और कहीं-कहीं पूरा पैर कटा पड़ा था, जिनसे दुर्गंध उठ रही थी. बदबूं से उसने अपनी नाक-भौंह सिकुड़ी और फिर आगे की ओर चल दिया.
लूट का मंज़र अब भी बादस्तूर जारी था. उसने अपने पास से गुजरते आदमी को देखा. वह बच्चों के खिलौने और कुछ किताबें उठाएं जा रहा था. वह थोड़ा और आगे बढ़ा तो ठोकर लगकर गिरने से बाल-बाल बचा. संभलकर उसने देखा तो निहायत ही खूबसूरत जवान लड़की की लाश पड़ी थी. गहरे घाव लगने से लाश में से निकला खून ज्यादा दूर तक न फैलकर उसके आस-पास ही जमा हो गया था. मानो वह उस लाश के प्रति अपनी वफादारी साबित कर रहा हो. कहा रहा हो कि भले ही इंसान इंसान के प्रति वफादार न हो, लेकिन मैं तेरे प्रति वफादार हूं. हालांकि, रास्ता मिलते ही मुझे इख्तियार था कि मैं बहकर कहीं तक भी फैल जाऊं.
हाथ में चूड़ी, पैरों में पायल और उसके बनाव-सिंगार को देखकर लगा रहा था कि वह एक अच्छे परिवार की शादी-शुदा औरत थी. उसने लाश को ध्यान से देखा तो डूबते चांद की चांदनी में उसके सीने पर लॉकेट चमक रहा था. एक चमकदार लॉकेट. उसकी चैन चांदी की थी और उसके बीच में सफेद नगीने की शक्ल का कुछ चमक रहा था. उसने वह लॉकेट लाश पर से उठा लिया और उसे ध्यान से देखने लगा. हो ना हो, उसने यह लॉकेट कहीं देखा है. लेकिन उसे याद नहीं आ रहा कि कहां देखा है?
दिमाग पर जोर देकर उसने याद करने की कोशिश की तो कॉलेज की वह लड़की याद आई, जिसे उसने सबसे पहले एडमिशन विंडो पर देखा था. उसके बाद कैंटीन और फिर क्लास के गेट पर. फिर तो वह उसे हर उस जगह देखता, जहां वह जाती थी. वह उसके पीछे दिवानों की तरह घूमता था. हर जगह, कॉलेज के पूरे वक्त. हालांकि उसने उससे कभी कुछ कहा नहीं था. बस, वह उसे देखता. वह गोरी नहीं थी. सांवला रंग था उसका. छोटी और मुखर काली आंखे. लंबे बाल. और गले में लटकता वह चमकदार लॉकेट. हूबहू वैसा ही, जैसा इस वक्त वह अपने हाथ में लिए खड़ा था. उसने कई बार चाहा कि वह उससे बात करे. उसे अपने दिल की बात बता दे. पर उसने कुछ नहीं कहा. फिर उसने एक प्रोफेसर के हाथ में कुछ फॉर्म देखे थे. उन फॉर्म में सबसे ऊपर उस लड़की की फोटो वाला फॉर्म था. उसने उसका नाम पढ़ा, उसके पिता का नाम. धर्म देखा और देखी उसकी जाति. जाति देखते ही वह पीछे हट गया…! वह खुद से ही बुदबुदाया, “वह एससी है? यानी दलित.”
इसके बाद उसने उसे फिर कभी नहीं देखा. हालांकि वह उसके आगे-आगे घूमती. पर वह पलट गया. वह ब्राह्मण लड़का था… मुहब्बत होने के बावजूद वह उससे प्यार करके किसी अनचाहे विवाद को जन्म देना नहीं चाहता था.
लूटने वाले लोग अब भी लूट रहे थे. जब लूटने के लिए कुछ नहीं बचा तो वे एकांत में अकेले खड़े उस इंसान के पास आकर जमा हो गए, जो एक लाश के पास खड़ा अपने हाथों में थामे किसी चीज को बड़े ध्यान से देख रहा था. उसने भी लॉकेट से नज़र हटाकर, चेहरा उठाकर एक बार उन लोगों को देखा और फिर लॉकेट में खो गया. उसके चारों तरफ लोगों की संख्या बढ़ती गई और वह ऐसी ही बुत बना लॉकेट देखता रहा.
तभी, अचानक एक शोर उठा. लोग, और उनसे घिरे खड़ा वह शख्स इससे पहले कि कुछ समझ पाता हवा में तैरते हुए सफेद टोपियों का एक झुंड आया और उन सबके सिर धड़ से अलग जा गिरे.
लॉकेट अब भी चमक रहा था. लेकिन अब ठंडी होकर अकड़ चुकी लड़की की लाश पर नहीं… ताजा और गर्म खून के निकलने से फुदकते लड़के के धड़ पर.
पुस्तकः कर्फ्यू की रात (कहानी संग्रह)
लेखकः शहादत
प्रकाशकः लोकभारती प्रकाशन
मूल्यः 250 रुपये
Tags: Hindi Literature, Hindi Writer
FIRST PUBLISHED : June 16, 2024, 17:53 IST
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