Explainer : यूरिया की रिकॉर्ड तोड़ खपत क्यों चिंताजनक और हर किसी के लिए खतरा

हाइलाइट्स
हरित क्रांति में पहली बार खेतों में कृत्रिम उर्वरक डालने की प्रथा शुरू हुई, पहले किसान देसी तरीके अपनाते थे
यूरिया के इस्तेमाल से फसलों की पैदावार तो बढ़ी लेकिन इससे जरूरत से ज्यादा यूरिया का प्रयोग शुरू हुआ
अब जरूरत से ज्यादा यूरिया का इस्तेमाल खेती की जमीन को बंजर बना रहा है और नाइट्रोजन प्रदूषण फैला रहा है
मई 2015 में केंद्र ने नया नियम बनाय. अब सभी स्वदेशी और आयातित यूरिया को नीम के तेल से कोट करना जरूरी कर दिया गया. इसके बाद मार्च 2018 में 50 किलो के बैग को 45 किलो वाले बैग से बदल दिया गया. दो साल से कुछ कम पहले जून 2021 में इफ्को यानि भारतीय किसान उर्वरक सहकारी ने तरल ‘नैनो यूरिया’ लांच किया.
लेकिन इनमें से कोई भी उपाय देश के खेतों में यूरिया के इस्तेमाल और खासी खपत को कम नहीं कर सका. हालांकि इस बीच गैर कृषि कामों में अवैध तरके से भी यूरिया का उपयोग हुआ. अब ये पता लग रहा है कि देश में यूरिया की बिक्री ने सारे पिछले रिकॉर्ड्स तोड़ दिये हैं.
31 मार्च, 2023 को समाप्त वित्तीय वर्ष में यूरिया की बिक्री रिकॉर्ड 35.7 मिलियन टन (एमटी) को पार कर गई.वैसे शुरू में जरूर दो सालों तक जब यूरिया को नीम की कोटिंग के साथ लाया गया तो इसकी खपत कम हुई. ये प्लाईवुड, पार्टिकल बोर्ड, टेक्सटाइल डाई, पशु चारा और सिंथेटिक दूध निर्माताओं द्वारा भी खूब इस्तेमाल में लाया जाता था.
हालांकि ये गिरावट 2018-19 से उलट गई. 2022-23 में यूरिया की बिक्री 2015-16 की तुलना में लगभग 5.1 मिलियन टन और 2009-10 की तुलना में 9 मिलियन टन से अधिक हो गई. जाहिर सी बात है कि यूरिया की खपत में एक तिहाई से अधिक की बढोतरी से पोषक असंतुलन बिगड़ रहा है. नरेंद्र मोदी सरकार ने पिछले एक साल में डीएपी पर मूल्य नियंत्रण वापस ले लिया, इससे भी यूरिया और डीएपी की बिक्री में उछाल आ गया.
सवाल – उर्वरक फसलों के लिए क्यों जरूरी हैं?
– उर्वरक अनिवार्य रूप से फसलों के लिए भोजन हैं. उन्हें, मनुष्यों की तरह, पोषक तत्वों की आवश्यकता होती है – पौधों की बढोतरी और अनाज की उपज अच्छी पाने के लिए प्राथमिक (एन, पी, के), माध्यमिक (एस, कैल्शियम, मैग्नीशियम) और सूक्ष्म (लौह, जस्ता, तांबा, मैंगनीज, बोरॉन, मोलिब्डेनम) तत्वों की जरूरत होती है.
सवाल – हरित क्रांति में कृत्रिम उर्वरक डालने से क्या असर पड़ा?
– हरित क्रांति के दौरान, वैज्ञानिकों ने अर्ध-बौनी फसल किस्मों को विकसित किया, जो तब भी झुकती या गिरती नहीं थीं, जब उनकी बालियां अच्छी तरह से भरे हुए अनाज से भरी होती थीं. उर्वरक की वजह से फसलों की ताकत और उर्वरा शक्ति दोनों बढ़ी. लेकिन फसलों पर उर्वरक की जरूरत से ज्यादा निर्भरता ने जमीन की उपज क्षमता में भी कमी ला रही है. 1960 के दशक के दौरान भारत में 1 किलोग्राम एनपीके पोषक तत्वों से 12.1 किलोग्राम अनाज पैदा हुआ, लेकिन 2010 के दौरान केवल 5 किलोग्राम.
सवाल – जब शुरू में किसान यूरिया प्रयोग पर हिचके तो अब क्यों बेतहाशा इस्तेमाल?
कृषि के क्षेत्र में मजबूत बनाने के उद्देश्य से यूरिया का इस्तेमाल हरित क्रांति (1965-66) के बाद पूरे देश में किया गया. शुरू में तब किसान यूरिया को खेत में डालने पर हिचकते थे लेकिन जब उन्होंने इसके इस्तेमाल के बाद कई गुना ज्यादा फसल की पैदावार लेनी शुरू कर दी तो वो खुद ही जमकर यूरिया का इस्तेमाल करने लगे.
पहले किसान खेतों में गोबर की खाद डालते थे लेकिन ऐसा करने पर 60 के दशक में वो अगर चार कुंतल (400 किलो ग्राम) उपज लेते थे तो उन्होंने ये देखा कि यूरिया डालने के बाद वो सीधे 1200 किलो से अधिक गेहूं की उपज ले रहे हैं. सरकार ने भी यूरिया के प्रचार में कसर नहीं छोड़ी. नतीजा ये हुआ किसान हर साल के साथ खेतों में यूरिया का प्रयोग बढ़ाने लगे
देश में किसानों द्वारा 1975 के आसपास अपने-अपने खेतों में तीन से पांच गुना यूरिया डालना एक सामान्य सी बात बनकर रह गई थी. ये भी सही है कि उसी दर से उनका उत्पादन भी बढ़ रहा रहा था लेकिन किसानों को इस बारे में सरकार की ओर से कोई अधिकृत जानकारी देने का कहीं दूर-दूर तक कोई कार्यक्रम नहीं था. नतीजा यह हुआ कि किसान अपने खेतों में यूरिया का उपयोग लगातार बढ़ा रहा था.
सवाल – क्या यूरिया खेतों को बंजर कर रहा है?
दरअसल यूरिया का ज्यादा इस्तेमाल धीरे-धीरे हमारे खेतों को बंजर कर रहा है. 1985 से 1995 के बीच प्रति एकड़ 125 किलोग्राम यूरिया डाल कर उपज का दस से 12 गुना बढ़ाया. लेकिन अब यूरिया के बाद भी पैदावार घटने लगी यानि जमीन की उर्वरा शक्ति ज्यादा यूरिया डालते रहने से जवाब दे गई है
सवाल – अब क्यों कृषि वैज्ञानिक भी यूरिया के कम इस्तेमाल की सलाह देने लगे हैं?
वैसे हाल फिलहाल कृषि वैज्ञानिक भी किसानों को कम खाद के इस्तेमाल की राय दे रहे हैं. वो किसानों को अधिक यूरिया खाद का प्रयोग नहीं करने की राय दे रहे हैं. अधिक यूरिया डालने से फसल पर हानिकारक कीड़े और बीमारियों का अधिक हमला होता है. वातावरण में जहर की मात्रा भी बढ़ती है. फिर किसान अगर एसीफेट, कारबैंडाजिम, थायोमेथाकसम, ट्राइसाइकलाजोल और ट्राइऐजोफास जैसे दवाइयां भी डालते हैं तो फसलों में इनका प्रभाव लंबे समय तक रहता है.
ऐसी प्रभावित जमीन पर जो सब्जियां पैदा होती है, उसका मनुष्य की सेहत पर बुरा प्रभाव पड़ता है. पंजाब कृषि विश्वविद्यालय की हालिया शोध भी कहती है कि नाइट्रोजन का इस्तेमाल कम होना चाहिए. एक अध्ययन ये भी कहता है कि यूरिया के अत्यधिक इस्तेमाल ने नाइट्रोजन चक्र को बुरी तरह प्रभावित किया.
सवाल – नाइट्रोजन पौधों के लिए क्यों जरूरी है और क्यों कृत्रिम फर्टीलाइजर का आविष्कार हुआ?
– नाइट्रोजन पौधों के लिए जरूरी होती है क्योंकि यह पौष्टिक तत्वों को प्रतिबंधक बनाता है. क्लोरोफिल और प्रोटीन सिंथेसिस के जरिए पौधे इससे भोजन तैयार करते हैं. प्राकृतिक रूप से यह जरूरी पौष्टिक तत्व मिट्टी में डाइएजोट्रोफ जीवाणु के जरिए मौजूद रहते हैं. ये दाल जैसे पौधों की जड़ों में उपस्थित होते हैं. लेकिन औद्योगिक क्रांति के बाद यह प्राकृतिक मौजूदगी पर्याप्त नहीं रही क्योंकि यह बढ़ती आबादी को भोजन उपलब्ध कराने में असमर्थ थी. इस कारण प्राकृतिक रूप से मौजूद नाइट्रोजन के पूरक के लिए कृत्रिम फर्टीलाइजर का आविष्कार किया गया.
सवाल – यूरिया के ज्यादा इस्तेमाल से नाइट्रोजन का क्या खतरा पैदा हो रहा है?
– इंडियन नाइट्रोजन ग्रुप में शामिल इन वैज्ञानिकों ने अपने आकलन में कहा है कि पिछले पांच दशकों से यूरिया के बेतहाशा इस्तेमाल से नाइट्रोजन प्रदूषण का फैलाव तेजी से हो रहा है.
वैज्ञानिकों की रिपोर्ट बताती है भारत में नाइट्रोजन प्रदूषण का अहम स्रोत कृषि है. इसका अधिकांश भाग नाइट्रोजन फर्टीलाइजर (उर्वरक) खासकर यूरिया के अत्यधिक इस्तेमाल से आता है. भारत में कृषि फसलों में यूरिया कृत्रिम फर्टीलाइजर का मुख्य स्रोत है. मूल्यांकन के अनुसार, देश में उत्पादित कुल नाइट्रोजन फर्टीलाइजर में इसकी हिस्सेदारी 84 प्रतिशत है.
नाइट्रोजन प्रदूषण मिट्टी के स्वास्थ्य को प्रभावित करता है जिसके परिणामस्वरूप फसलों की पैदावार कम हो जाती है. फर्टीलाइजरों के अत्यधिक इस्तेमाल से जमीन अनुत्पादक हो जाती है. ऐसा इसलिए होता है क्योंकि मिट्टी से लंबे समय के लिए कार्बन मात्रा (कार्बन कंटेंट) घट जाती है जो इसके स्वास्थ्य पर असर डालती है. पोषक तत्वों और जैविक खाद को मद्देनजर रखते हुए फर्टीलाइजरों के उपयोग में संतुलन बनाना जरूरी है.
सवाल – नाइट्रोजन प्रदूषण बच्चों के लिए किस तरह खतरनाक है?
– पीने के पानी में नाइट्रेट से छह महीने के तक बच्चों को ब्लू बेबी सिंड्रोम हो सकता है. इस बीमारी से ग्रसित बच्चों के खून में ऑक्सीजन की मात्रा कम हो जाती है क्योंकि नाइट्रेट हीमोग्लोबिन के प्रभाव को बाधित कर देता है. हीमोग्लोबिन ऑक्सीजन का वाहक है. इससे बच्चों को बार-बार डायरिया हो सकता है. यह श्वसन क्रिया को भी बाधित करता है. यह स्कूली बच्चों में उच्च रक्तचाप और ब्लड प्रेशर भी बढ़ा देता है.
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Tags: Agriculture, Farmer, Farmers in India, Urea crisis, Urea production
FIRST PUBLISHED : April 25, 2023, 18:02 IST
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