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सूर्यकांत त्रिपाठी निराला स्मृति विशेष – अनुभूति को सर्वोच्च स्तर पर ले जाती हैं निराला की रचनाएं

महाकवि सूर्यकांत निराला की तकरीबन सभी रचनाएं आनंद देती हैं. लेकिन उनकी कुछ रचनाएं ऐसी हैं जो पढ़ने-सुनने वाले को दिव्य अनुभूति के स्तर तक ले जाती हैं. बात ‘सरोज स्मृति’ की हो या ‘बादल राग’ की, या फिर ‘राम की शक्ति पूजा’. महाप्राण निराला की इन रचनाओं को एक अलग ही श्रेणी में रखना होता है. शब्द, शिल्प और विषय तीनों प्रकार से इन रचनाओं को विश्व साहित्य के परिपेक्ष्य में भी इन रचनाओं का स्थान ऊंचा ही रहेगा. खासतौर से ‘सरोज स्मृति’ की बराबरी की दूसरी रचना खोज पाना सहज नहीं है. विलियम वड्सवर्थ ने ‘लूसी ग्रे’ में बच्ची का शानदार वर्णन किया है. लेकिन अपनी दूसरी बहुत सी रचनाओं की ही तरह इसमें वे कुदरत और उसकी आभा को साथ लेकर चलते हैं. जबकि शोक रचना होने के बाद भी ‘सरोज स्मृति’ ऐसी पुरअसर रचना है कि एक बार भी पढ़ लेने वाला उसके रचना से प्रभावित हुए बगैर नहीं रहता. रामविलास शर्मा ने तो साफ कह दिया कि अंग्रेजी में भी इस तरह का शोकगीत दुर्लभ है. ‘सरोज स्मृति’ में अपनी युवा हो रही बेटी का जैसा चित्रण निराला ने किया है वो कर पाना उन्हीं की रचनाशक्ति के बस का था.

कर पार, कुंज-तारुण्य सुघर
आई, लावण्य-भार थर-थर
काँपा कोमलता पर सस्वर
ज्यों मालकौश नव वीणा पर;
नैश स्वप्न ज्यों तू मंद-मंद
फूटी ऊषा—जागरण-छंद;
काँपी भर निज आलोक-भार,
काँपा वन, काँपा दिक् प्रसार।
परिचय-परिचय पर खिला सकल—
नभ, पृथ्वी, द्रुम, कलि, किसलय-दल।
क्या दृष्टि! अतल की सिक्त-धार
ज्यों भोगावती उठी अपार,
उमड़ता ऊर्ध्व को कल सलील
जल टलमल करता नील-नील,
पर बँधा देह के दिव्य बाँध,
छलकता दृगों से साध-साध।
फूटा कैसा प्रिय कंठ-स्वर
माँ की मधुरिमा व्यंजना भर।

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यही स्थिति ‘बादलराग’ की है. क्रांति का बिम्ब बना कर जो प्रस्तुति इस गीत में की गई है वो इस सौंदर्य के साथ दुर्लभ है. कविता के शब्दों की ध्वनि ही पूरे वातावरण को बारिश की बूंदों से भिगो देती है-

झूम-झूम मृदु गरज-गरज घन घोर।
राग अमर! अम्बर में भर निज रोर!
झर झर झर निर्झर-गिरि-सर में,
घर, मरु, तरु-मर्मर, सागर में,
सरित-तड़ित-गति-चकित पवन में,
मन में, विजन-गहन-कानन में,
आनन-आनन में, रव घोर-कठोर-
राग अमर! अम्बर में भर निज रोर!

‘राम की शक्ति’ पूजा को निराला के सरोकारों के उत्कर्ष के रूप में समझना चाहिए. आदिकवि वाल्मीकि ने भी युद्ध से पहले राम को पूजा करते हुए लिखा है, लेकिन उनके राम सूर्य की पूजा करते हैं. वाल्मीकि रामायण का यही अंश को ‘आदित्यहृदय स्तोत्र’ के रूप में प्रचलित भी है. फिर भी निराला के ‘राम शक्ति की पूजा’ करते हैं. बहुत से आलोचक इसे उस समय के आंदोलनों का असर भी बताते हैं –

कुछ समय अनन्तर इन्दीवर निन्दित लोचन
खुल गये, रहा निष्पलक भाव में मज्जित मन,
बोले आवेग रहित स्वर सें विश्वास स्थित
“मातः, दशभुजा, विश्वज्योति; मैं हूँ आश्रित;
हो विद्ध शक्ति से है खल महिषासुर मर्दित;
जनरंजन-चरण-कमल-तल, धन्य सिंह गर्जित!
यह, यह मेरा प्रतीक मातः समझा इंगित,
मैं सिंह, इसी भाव से करूँगा अभिनन्दित।”

यहां सूर्यकांत त्रिपाठी निराला लोक में प्रचलित तरीके को बचा कर अपनी रचना को पुष्ट करते हैं. लोक मान्यता रही है कि श्रीराम को इस तरह के काम काज के लिए कोई न कोई सलाह देता है. जैसे वाल्मीकि की रचना में श्रीराम को अगस्त्य ऋषि सलाह देते हैं तो निराला की रचना में जामवंत जी शक्ति की पूजा करने की सलाह देते हैं.

कह हुए भानुकुलभूष्ण वहाँ मौन क्षण भर,
बोले विश्वस्त कण्ठ से जाम्बवान-“रघुवर,
विचलित होने का नहीं देखता मैं कारण,
हे पुरुषसिंह, तुम भी यह शक्ति करो धारण,
आराधन का दृढ़ आराधन से दो उत्तर,
तुम वरो विजय संयत प्राणों से प्राणों पर।

छायावाद, रचना की विशिष्ठता और गंभीरता की रचनाधर्मिता के साथ सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की स्वतंत्रता भी उनके व्यक्तित्व का बहुत बड़ा गुण है. उनकी पूरे रचना संसार पर इसका प्रभाव साफ दिखता है. जैसा निराला के बारे में प्रचार किया जाता है कि वे अपने आप में अलमस्त रहने वाले थे, उसके विपरीत वे दुनिया भर में चल रह गतिविधियों के प्रति जागरुक रहते थे.

जार्ज पंचम के भारत आगमन के समय सरकार की ओर से हिंदी के कवियों से आग्रह किया गया कि वे उनके स्वागत में रचनाएं करें. निराला जी से भी अनुरोध किया गया. उन्होंने दो टूक मना कर दिया. नहीं लिखा. कहा जाता है कि उनकी दलील थी कि भारत का शोषण करने वाले किसी शासक पर वे अपनी लेखनी नहीं चलाएंगे. लेकिन उसी के बाद एडवर्ड अष्टम ने इंग्लैंड का तख्त छोड़ने की शर्त के बाद भी तख्त ताज छोड़ सिंपसन से व्याह रचा लेते हैं तो निराला की कलम चल पड़ती है. सिंपसन राजपरिवार से नहीं थे और ब्रिटिश संसद ने उनसे शादी के लिए राजा के सामने तख्त छोड़ने की शर्त रखी थी. निराला जी ने ‘सम्राट एडवर्ड अष्टम के प्रति’ नाम से अपनी कविता में लिखते हैं –

भेदों का क्रम,
मानव हो जहाँ पड़ा–
चढ़ जहाँ बड़ा सम्भ्रम।
सिंहासन तज उतरे भूपर,
सम्राट! दिखाया
सत्य कौन सा वह सुन्दर।
जो प्रिया, प्रिया वह
रही सदा ही अनामिका,
तुम नहीं मिले,–
तुमसे हैं मिले हुए नव
योरप-अमेरिका।
सौरभ प्रमुक्त!
प्रेयसी के हृदय से हो तुम
प्रतिदेशयुक्त,
प्रतिजन, प्रतिमन,
आलिंगित तुमसे हुई
सभ्यता यह नूतन!

सूर्यकांत त्रिपाठी निराला का ये साहस उनके पूरे व्यक्तित्व में रहा. शायद यही कारण है कि हिंदी कवियों के प्रखर आलोचक फ़िराक गोरखपुरी से उनकी बहुत मैत्री थी. छायावादी रचना में उनकी समानधर्मा रचनाकार महादेवी तो उन्हें भाई ही मानती थीं. निराला जी अपने तरीके के अनूठे शाहखर्च भी थे. अगर जेब में कुछ है तो सब का सब औरों को दे देना उनकी फितरत थी. पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु इलाहाबाद के होने के कारण निराला के इस गुण से वाकिफ थे. लिहाजा आजादी के बाद जब उन्होंने रचनाधर्मियों की मदद करने की सोची तो ये तरकीब निकली कि सरकार की ओर से जो भी मदद निराला जी को दी जानी थी वो महादेवी को ही दी जाती थी. महादेवी जी निराला को जरुरत के हिसाब से पैसे दे देती थीं. इस स्थिति में रहने के बाद भी निराला ने जो रचना की वो कालजयी कही जा सकती हैं.

Tags: Hindi Literature, Hindi Writer, Literature, Nirala


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एडवोकेट अरविन्द जैन

संपादक, बुंदेलखंड समाचार अधिमान्य पत्रकार मध्यप्रदेश शासन

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