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कोर्ट कानून के मौलिक ढांचे को न तो बदल सकता है, न नए सिरे से लिख सकता है: केंद्र

नई दिल्ली. केंद्र सरकार ने बुधवार को उच्चतम न्यायालय (Supreme Court) में कहा कि अदालत न तो कानूनी प्रावधानों को नये सिरे से लिख सकती है, न ही किसी कानून के मूल ढांचे को बदल सकती है, जैसा कि इसके निर्माण के समय कल्पना की गई थी. केंद्र ने न्यायालय से अनुरोध किया कि वह समलैंगिक विवाहों को कानूनी मंजूरी देने संबंधी याचिकाओं में उठाये गये प्रश्नों को संसद के लिए छोड़ने पर विचार करे.

केंद्र ने कहा कि शीर्ष अदालत ‘बहुत ही जटिल’ विषय से निपट रही है, जिसका ‘गहरा सामाजिक प्रभाव’ होगा और इसके लिए विभिन्न कानूनों के 160 प्रावधानों पर विचार करने की आवश्यकता होगी. केंद्र की दलील तब आई जब अदालत समलैंगिक विवाह को कानूनी मंजूरी देने की याचिका पर सुनवाई कर रही थी. इसने जोर देकर कहा कि विधायिका अकेले याचिकाओं में उठाए गए मुद्दों से निपट सकती है.

केंद्र की ओर से न्यायालय में पेश हुए सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने प्रधान न्यायाधीश डी वाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पांच-सदस्यीय संविधान पीठ से कहा कि इन प्रावधानों पर फिर से विचार करना संसद के लिए भी एक ‘‘जटिल कार्य’’ होगा और न्यायपालिका ऐसा करने के लिए बिल्कुल भी तैयार और सशक्त नहीं है. मेहता ने कहा, ‘‘मूल प्रश्न यह है कि इस बारे में फैसला कौन करेगा कि विवाह क्या है और यह किनके बीच है.’’

संविधान पीठ में न्यायमूर्ति एस. के. कौल, न्यायमूर्ति एस.आर. भट, न्यायमूर्ति हिमा कोहली और न्यायमूर्ति पी.एस. नरसिम्हा शामिल हैं.

‘विधायिका की शक्ति का इस्तेमाल न्यायपालिका नहीं कर सकती’
केंद्र ने कहा कि कई अन्य विधानों पर भी इसका अनपेक्षित प्रभाव पड़ेगा, जिस पर समाज में और विभिन्न राज्य विधानमंडलों में चर्चा करने की जरूरत पड़ेगी. अपनी दलीलें पेश करते हुए, मेहता ने भारत और विदेशों में विभिन्न अदालतों द्वारा दिए गए कई निर्णयों का उल्लेख किया और कहा कि विधायिका की शक्ति का इस्तेमाल न्यायपालिका नहीं कर सकती है.

मेहता ने कहा कि विवाह दो व्यक्तियों का व्यक्तिगत मामला है, इसके बावजूद, उम्र और तलाक के आधार जैसे विभिन्न तौर-तरीकों को तय करने के लिए विधायिकाएं हस्तक्षेप करती हैं.

उन्होंने वरिष्ठ अधिवक्ताओं मुकुल रोहतगी और सौरभ कृपाल की जोरदार दलीलों का खंडन किया, जिन्होंने याचिकाकर्ताओं के पक्ष में तर्क दिया है कि 1954 में विशेष विवाह अधिनियम बनाये जाने के समय समलैंगिकता की अवधारणा पर संसद में विचार-विमर्श नहीं किया गया था और इसलिए अदालत अब समलैंगिक भागीदारों को विवाह का अधिकार प्रदान करने के लिए कुछ प्रावधानों पर विचार कर सकती है.

मामले की सुनवाई जारी
मेहता ने विशेष विवाह अधिनियम से संबंधित संसदीय बहसों का व्यापक रूप से उल्लेख किया और कहा कि कानून निर्माता समलैंगिकता के बारे में ‘‘काफी जागरूक’’ थे और स्पष्ट इरादे से उन्होंने इसे शामिल न करने का फैसला किया था. उन्होंने समलैंगिक विवाहों को मान्यता प्रदान करने की मांग करने वालों की दलीलों पर सवाल उठाया और वैवाहिक संबंध के लिए पुरुष और महिला के लिए निर्धारित न्यूनतम आयु का उल्लेख किया.

शीर्ष न्यायालय में विषय की सुनवाई जारी है.

विषय की सुनवाई के प्रथम दिन, 18 अप्रैल को केंद्र ने शीर्ष न्यायालय से कहा था कि उसकी प्राथमिक आपत्ति यह है कि क्या न्यायालय इस प्रश्न पर विचार कर सकता है या इस पर पहले संसद को विचार करना जरूरी है.

मेहता ने कहा था कि शीर्ष न्यायालय जिस विषय से निपट रहा है वह वस्तुत: विवाह के सामाजिक-विधिक संबंध से संबंधित है, जो सक्षम विधायिका के दायरे में होगा. उन्होंने कहा था, ‘‘यह विषय समवर्ती सूची में है, ऐसे में हम इस पर एक राज्य के सहमत होने, एक अन्य राज्य द्वारा इसके पक्ष में कानून बनाने, एक अन्य राज्य द्वारा इसके खिलाफ कानून बनाने की संभावना से इनकार नहीं कर सकते. इसलिए राज्यों की अनुपस्थिति में याचिकाएं विचारणीय नहीं होंगी, यह मेरी प्राथमिक आपत्तियों में से एक है.’’

पीठ ने 18 अप्रैल को स्पष्ट कर दिया था कि वह इन याचिकाओं पर फैसला करते समय विवाह से जुड़े ‘पर्सनल लॉ’ पर विचार नहीं करेगा.

केंद्र ने राज्यों से मांगे थे विचार
केंद्र ने शीर्ष न्यायालय में दाखिल अपने हलफनामों में एक में याचिकाओं को सामाजिक स्वीकार्यता के उद्देश्य के लिए एक ‘शहरी संभ्रांतवादी’ विचार का प्रतिबिंब बताया था. साथ ही, कहा था कि विवाह को मान्यता देना एक विधायी कार्य है जिसपर निर्णय देने से अदालतों को दूर रहना चाहिए.

केंद्र ने 19 अप्रैल को शीर्ष न्यायालय से अनुरोध किया था कि सभी राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों को इन याचिकाओं पर कार्यवाहियों में पक्षकार बनाया जाए.

न्यायालय में दाखिल एक नये हलफनामे में केंद्र ने कहा था कि उसने 18 अप्रैल को सभी राज्यों को एक पत्र भेजकर इन याचिकाओं में उठाये गये मुद्दों पर टिप्पणियां आमंत्रित की हैं और विचार मांगे हैं.

पीठ ने 25 अप्रैल को विषय पर सुनवाई करते हुए कहा था कि समलैंगिक विवाह को कानूनी मंजूरी देने की मांग करने वाली याचिकाओं में उठाये गये मुद्दों पर संसद के पास अविवादित रूप से विधायी शक्ति है.

Tags: Same Sex Marriage, Supreme Court


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एडवोकेट अरविन्द जैन

संपादक, बुंदेलखंड समाचार अधिमान्य पत्रकार मध्यप्रदेश शासन

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