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वर्ष 1964 में कम्युनिस्ट पार्टी में विभाजन के बाद मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) के संस्थापक सदस्य रहे अच्युतानंदन का जीवन अथक संघर्ष से परिभाषित था-जाति और वर्ग-बद्ध समाज में व्याप्त अन्याय और अपनी ही पार्टी के भीतर धीरे-धीरे पनपते ‘संशोधनवाद’ के विरुद्ध.
अच्युतानंदन को उनकी पार्टी के सहकर्मी और यहां तक कि राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी भी प्यार से कॉमरेड ‘वीएस’ के नाम से जानते थे. उनका जीवन घटनाओं के लिहाज से विविधतापूर्ण था. एक बार मजदूरों के अधिकारों के लिए आजादी से पहले किए गए संघर्ष के दौरान उनकी पुलिस ने इस कदर पिटाई की थी कि उन्हें मृत समझकर दफनाने की तैयारी कर ली गई थी, लेकिन वे बच गए. उन्होंने अपने ऊपर हमला करने वालों को चुनौती दी और केरल की सबसे कद्दावर राजनीतिक हस्तियों में से एक बन गए.
वह आठ दशकों से भी अधिक समय तक हमेशा मजदूरों, किसानों और गरीबों के पक्ष में दृढ़ता से खड़े रहे. उपनिवेशवाद-विरोधी प्रतिरोध, वर्ग संघर्ष और भारतीय वामपंथ के जटिल एवं अक्सर अशांत रास्ते ने उनकी राजनीति को आकार दिया.
उन्होंने ‘ट्रेड यूनियन’ में अपनी सक्रियता के माध्यम से सार्वजनिक जीवन में प्रवेश किया, 1939 में प्रदेश कांग्रेस में शामिल हुए और एक साल बाद कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य बनकर मार्क्सवाद को अपनाया.
वह 1964 में उन 32 प्रमुख नेताओं में से एक थे, जिन्होंने वैचारिक मतभेद के बाद भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (भाकपा) से अलग होकर मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) का गठन किया. इस निर्णायक पल में भी उनकी भूमिका केरल में माकपा की पहचान की आधारशिला बनी रही.
वह चार बार (1967, 1970, 1991 और 2001 में) केरल विधानसभा के लिए चुने गए और दो बार नेता प्रतिपक्ष रहे-पहली बार 1992 से 1996 तक और फिर 2001 से 2005 तक.
अच्युतानंदन का सफर एक दर्जी की दुकान में सहायक के रूप में शुरू हुआ, लेकिन इसके बाद पार्टी के भीतर और बाहर जनता के हितों की लड़ाई लड़ते हुए 2006 में राज्य का मुख्यमंत्री बनने तक उन्होंने अथक संघर्ष किया.
माकपा के भीतर एक प्रखर संगठनकर्ता अच्युतानंदन कभी भी विरोध से नहीं डरते थे, चाहे वे राजनीतिक विरोधी रहे हों या अपनी ही पार्टी के भीतर के प्रतिद्वंद्वी रहे हों, जिनमें सबसे प्रमुख नाम पोलित ब्यूरो के सदस्य और वर्तमान मुख्यमंत्री पिनराई विजयन का है.
इस हार के लिए व्यापक रूप से मार्क्सवादी पार्टी के भीतर उनके प्रतिद्वंद्वियों की गुटबाजी को जिम्मेदार ठहराया गया था.
उन्होंने संघर्ष करके वापसी की, पार्टी में अपनी स्थिति फिर से बनाई और पहले से कहीं अधिक मजबूत एवं लोकप्रिय नेता के रूप में लौटे.
अच्युतानंदन ने 2006 से 2011 तक एलडीएफ सरकार का नेतृत्व किया, जबकि उनकी अपनी पार्टी के कुछ लोग उन्हें दरकिनार करने की कोशिश करते रहे. उनके कार्यकाल की पहचान भ्रष्टाचार के प्रति कड़े रुख, पारदर्शिता पर जोर देने और आम लोगों की मदद के लिए कल्याणकारी योजनाओं पर ध्यान केंद्रित करने से है.
अपनी उम्र के बावजूद उन्होंने पूरे राज्य में ऊर्जा के साथ यात्रा की, अपनी विशिष्ट शैली में जोशीले भाषण दिए और वामपंथियों के लिए समर्थन जुटाया.
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