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सबसे पहली बात, जस्टिस यशवंत वर्मा पर गंभीर आरोप लगे हैं. उन पर भ्रष्टाचार और न्यायपालिका की गरिमा को ठेस पहुंचाने के आरोप हैं. अपने पद के दुरुपयोग के आरोप लगे हैं. संविधान के अनुच्छेद 124(4) के तहत संसद उनके खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव लाने की तैयारी में है. अब सवाल यह है कि क्या यह अंतिम फैसला है, या इसमें सुप्रीम कोर्ट की दखल संभव है?
अनुच्छेद 124(4) क्या कहता है?
संविधान का अनुच्छेद 124(4) कहता है कि किसी न्यायाधीश को उसके पद से तब तक नहीं हटाया जाएगा जब तक कि संसद के प्रत्येक सदन की ओर से उस सदन की कुल सदस्यता के बहुमत तथा कम से कम दो-तिहाई बहुमत से प्रस्ताव न पास हो जाए और राष्ट्रपति उस पर सिग्नेचर न कर दें. यानी साफ है कि संसद दोनों सदनों में दो-तिहाई बहुमत से प्रस्ताव पारित करे और राष्ट्रपति उस पर आदेश दें तभी कोई सुप्रीम कोर्ट जज हटाया जा सकता है.
क्या सुप्रीम कोर्ट संसद के महाभियोग को ‘रिव्यू’ कर सकता है?
संविधान सीधे तौर पर नहीं कहता कि सुप्रीम कोर्ट महाभियोग की समीक्षा कर सकता है, लेकिन 1991 के के. वीरास्वामी केस में ऐतिहासिक फैसला देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा था, संसद का कोई भी निर्णय अगर उसकी प्रक्रिया में कोई गड़बड़ी लगती है तो उसका जूडिशियल रिव्यू किया जा सकता है. 1994 के आर गोपाल वर्सेस तमिलनाडु स्टेट के मामले में भी कोर्ट ने माना कि किसी की प्रतिष्ठा, आजादी और जीवन के अधिकार का उल्लंघन महाभियोग जैसी कार्यवाही में भी हो सकता है, जिसे अदालतें देख सकती हैं.
किन आधारों पर सुप्रीम कोर्ट दखल दे सकता है?
अगर यदि महाभियोग प्रक्रिया में नियमों का उल्लंघन हुआ हो. यदि प्रक्रिया राजनीति से प्रेरित हो या पक्षपातपूर्ण हो. यदि आरोप स्थापित नहीं हुए और फिर भी प्रस्ताव पास हुआ. यदि जज को सफाई देने का उचित अवसर नहीं मिला. लेकिन सुप्रीम कोर्ट के हाथ भी बंधे हैं. जैसे वह वह संसद की विवेकाधीन शक्ति को चुनौती नहीं दे सकता. वह संसदीय बहस और मत प्रक्रिया की वैधता को नहीं परख सकता. वह राष्ट्रपति के आदेश को आसानी से निरस्त नहीं कर सकता, जब तक प्रक्रिया असंवैधानिक न हो.
अब तक भारत में किसी भी जज को महाभियोग के जरिए पद से नहीं हटाया गया है. कुछ जजों के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव लाए गए, लेकिन वे या तो पहले ही इस्तीफा दे चुके, या प्रस्ताव संसद में पास नहीं हो पाया.
जस्टिस वी. रमास्वामी (1993)
सुप्रीम कोर्ट जज थे. इन पर भ्रष्टाचार, वित्तीय अनियमितताओं का आरोप लगा, जब वे पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट में थे. महाभियोग प्रस्ताव लोकसभा में पेश हुआ, लेकिन कांग्रेस ने वॉकआउट कर दिया. नतीजा दो-तिहाई बहुमत नहीं मिला, प्रस्ताव गिर गया. यह पहला और इकलौता मामला जो वोटिंग तक पहुंचा लेकिन सफल नहीं हुआ.
कलकत्ता हाईकोर्ट जज सौमित्र सेन पर वकील रहते क्लाइंट के पैसे के गबन का आरोप लगा. बाद में जज बनने पर भी पैसा नहीं लौटाया. राज्यसभा में महाभियोग प्रस्ताव पास हुआ, लेकिन लोकसभा में वोटिंग से पहले इस्तीफा दे दिया. नतीजा हटाए नहीं गए, लेकिन दबाव में इस्तीफा दिया.
जस्टिस पी. डी. दिनाकरन
सिक्किम हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस पर जमीन हथियाने, आय से अधिक संपत्ति जमा करने के आरोप लगे. महाभियोग की तैयारी हुई. संसदीय समिति गठित की गई. लेकिन उन्होंने कार्यकाल पूरा होने से पहले इस्तीफा दे दिया. नतीजा हुआ कि महाभियोग प्रक्रिया अधूरी रह गई.
जस्टिस सी. एस. कर्णन
मद्रास और फिर कलकत्ता हाईकोर्ट रहे जस्टिस कर्णन सुप्रीम कोर्ट के जजों पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाकर खुद अवमानना में फंसे. महाभियोग नहीं हुआ, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने 6 महीने की जेल की सजा दी. संविधान के इतिहास में पहला जज जो बिना महाभियोग के सुप्रीम कोर्ट द्वारा जेल भेजे गए.
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