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वाराणसी. देश में आपातकाल के 50 साल पूरे होने पर हलचल मची हुई है. बीजेपी इसे जोर-शोर से उठा रही है. पीएम मोदी भी ‘मन की बात’ कार्यक्रम के 123वें एपिसोड में इसे लोकतंत्र का काला अध्याय बताकर नई पीढ़ी को इसके बारे में जागरूक करने की बात कही है. जयप्रकाश नारायण, जॉर्ज फर्नांडिस, मधु लिमये, आडवाणी और अटल बिहारी वाजपेयी से लेकर लालू यादव और नीतीश कुमार जैसे दिग्गजों की चर्चा तो खूब हो रही है. लेकिन उस शख्स को याद करने में कंजूसी हो रही है, जिसने इंदिरा गांधी जैसे ताकतवर नेता को घुटनों के बल पर ला दिया. हम बात कर रहे हैं उस राजनारायण की, जिसने लोहिया के समाजवादी सिद्धांतों को न केवल सड़कों पर उतारा बल्कि आपातकाल का असली धूमकेतु कहें तो गलत नहीं होगा.
क्यों भुला दिए गए राजनारायण?
लोहिया के सपनों सामाजिक न्याय, समता, और लोकतंत्र को वे सड़क से संसद तक ले गए. 1971 में जब कोई भी इंदिरा गांधी के खिलाफ रायबरेली से चुनाव लड़ने को तैयार नहीं था, राजनारायण ने लड़ने का हां भरी. हालांकि वे हार गए, लेकिन हार कहां मानने वाले थे? उन्होंने कोर्ट में याचिका दायर की और 12 जून 1975 को इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इंदिरा का चुनाव रद्द कर दिया. बस, यहीं से शुरू हुआ वो तूफान, जिसने 13 दिन बाद आपातकाल को जन्म दिया.
50वें साल में राजनारायण की गूंज क्यों नहीं?
क्या बिना राजनारायण के आपातकाल आता?
ये सवाल गूढ़ है. राजनारायण की याचिका ने इंदिरा पर इस्तीफे का दबाव बनाया, ये सच है. लेकिन क्या आपातकाल सिर्फ उनकी वजह से आया? शायद नहीं. जयप्रकाश नारायण का असहयोग आंदोलन, जनता का गुस्सा, और सेना के तख्ता पलट की अफवाहें भी माहौल गरमा रही थीं. पश्चिम बंगाल के सीएम सिद्धार्थ शंकर रे ने तो जनवरी 1975 में ही आपातकाल की सलाह दे दी थी. फिर भी, राजनारायण की याचिका ने आग में घी का काम किया. अगर वो याचिका न होती, तो शायद आपातकाल का समय या रूप अलग होता, लेकिन इसे पूरी तरह टालना मुश्किल था.
बीजेपी हो या अन्य दल, राजनारायण की समाजवादी विरासत शायद उनके लिए असहज है. उनकी निडरता, लोहिया के सिद्धांतों को जमीनी स्तर पर लागू करने की जिद, और तानाशाही को ललकारने का जज्बा आज भी प्रासंगिक है. आपातकाल के 50वें साल में उनकी अनदेखी अफसोसजनक है. वे सिर्फ इंदिरा को हराने वाले नेता नहीं थे वे लोकतंत्र के उस जुनून का प्रतीक थे, जो सत्ता को चुनौती देता है. राजनारायण की कहानी समाजवाद, साहस, और लोकतंत्र की जीत की कहानी है. आपातकाल के 50वें साल में उनकी चर्चा हमें याद दिलाती है कि एक अकेला शख्स भी सत्ता के तूफान को रोक सकता है. क्या अब समय नहीं कि इस धूमकेतु को वो सम्मान मिले, जिसका वो हकदार है?
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