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शहीद कैप्टन देवाशीष शर्मा की मां निर्मला शर्मा 82 साल की हो चुकी हैं, सूखते पेड़ से गिरते पत्तों की तरह यादें एक-एक कर साथ छोड़ती जा रही हैं, लेकिन बेटे के बचपन से लेकर उसकी पढ़ाई, आर्मी में जाने और शहादत की बातें पूरी तरह याद हैं।
कुछ ऐसी ही कहानी शहीद मेजर अजय प्रसाद की मां कुसुम प्रसाद की भी है। 82 साल से अधिक उम्र की हो चुकी मां की आवाज ने साथ छोड़ दिया है, अस्पष्ट शब्द गले से फूटते हैं, लेकिन फिर भी रोजाना बेटे को याद कर आंसू बहाती हैं। कई बार बेहद हताश हो जाती हैं, तो कहती हैं, मुझे कोई नहीं समझता मेरा बेटा होता तो वही मुझे समझता।
ये दोनों मां अपने बेटों की शहादत को याद करती है। आज मदर्स डे पर इन्हीं की जुबानी पढ़िए उनके बेटों के जीवन से जुड़ी यादें।
सबसे पहले बात कैप्टन देवाशीष शर्मा की मां निर्मला की…

भोपाल में शाहपुरा लेक के ठीक सामने से ऊंचाई पर चढ़ने वाली सड़क पर है कैप्टन देवाशीष शर्मा का घर। यहां उनकी मां निर्मला शर्मा पिछले कई सालों से एकाकी जीवन बिता रही हैं। जब हम उनसे मिलने पहुंचे तो पुरानी मुलाकातों की यादों पर धूल जम चुकी थीं, वो पहचान नहीं सकी।
हम घर के भीतर पहुंचे, पूछा- क्या करती हैं आजकल? बोली सिरेमिक बनाती हूं…। कुछ लिखती–पढ़ती हूं, इस पर पति जितेंद्र की कविताओं की किताब आगे कर देती हैं। बेटे के बारे में पूछा तो धीरे–धीरे कुछ पन्ने पलटने लगीं। कुछ पढ़कर सुनाने का आग्रह किया तो बचपन शीर्षक की कविता पढ़कर सुनाने लगीं।
पंक्तियां कुछ इस तरह थीं- जब मैं तुम्हें हंसाने की हास्यास्पद कोशिश करता हूं…मैं उस बचपन को चूम लेना चाहता हूं, जो आज भी तुम्हारी आंखों में बसा है…। ये कल नहीं होगा… और तब तुम्हें याद भी नहीं रहेगा यह बचपन… जो तुमसे भी अधिक मैने जिया है…। किसके लिए लिखी थी यह कविता, पूछने पर वे बताती हैं, ” बेटे के लिए’

बेटे के लिए लिखी पति की जितेंद्र की कविता पढ़ते हुए निर्मला शर्मा।
पचमढ़ी की यादें अभी भी जेहन में
निर्मला शर्मा पिछले दो सालों से कमजोर याददाश्त से जूझ रही हैं। अब बोलती भी बेहद कम हैं, लेकिन बेटे की बात छेड़ने पर दिमाग में बिजली सा करंट दौड़ जाता है। उन्हें हर बात याद आ जाती है। सभी सवालों के सही उत्तर देती हैं। उनसे पूछा देवाशीष की पढ़ाई कहां से हुई तो बोलीं- पचमढ़ी से। आप वहां टीचर थीं? छोटा सा जवाब दिया- हां…।
वहां तो कैंट एरिया है देवाशीष सेना को देखकर कुछ बोलते थे? “बोलता तो कुछ नहीं था, लेकिन वहां उसने बचपन से सेना को देखा…।’ इसके बाद हमारी पोस्टिंग भोपाल हो गई, यहां मैदा मिल के पास स्कूल में पढ़ा। उसके बाद हम विशाखापट्नम चले गए। वहां स्कूल पूरा हुआ। उसने दिल्ली के हंसराज कॉलेज से पढ़ाई की फिर सेना में चला गया। पुणे में ट्रेनिंग हुई। ”

पुरानी फोटो एल्बम देखकर निर्मला बेटे से जुड़ी यादें ताजा करती हैं।
शहादत को नहीं करना चाहती याद बातचीत के दौरान बुजुर्ग मां ने बेटे के बचपन को उत्साह से याद किया तो सशस्त्र बल चिकित्सा महाविद्यालय (ए.एफ.एम.सी.) पुणे के ट्रेनिंग स्कूल की तस्वीरों को बार–बार पहचाना। तैराकी करते बेटे की तस्वीरों पर उनकी नजर ठहर रही थी, लेकिन बात जब बेटे की शहादत की आई तो वे बस इतना ही बोलीं… उसकी डेथ हो गई, चेहरे के भाव बदल गए।
टीम को बचाते शहीद हुए, मिला कीर्ति चक्र कैप्टन देवाशीष शर्मा ने एएफएमसी से चिकित्सा में अपना कोर्स पूरा किया इसके बाद उन्हें 1992 में आर्मी मेडिकल कोर (एएमसी) में सेना में नियुक्त किया गया। अपना प्रशिक्षण पूरा करने के बाद, कैप्टन देवाशीष को 22 जनवरी, 1993 को गढ़वाल राइफल्स रेजिमेंट की 10वीं बटालियन में तैनात किया गया।
उत्कृष्ट सेवाओं के लिए उन्हें राष्ट्रपति प्रशंसा पत्र भी मिला। इसके बाद वे 26 बटालियन पंजाब में रेजिमेंटल मेडिकल ऑफिसर (आरएमओ) बने। यहां 10 दिसंबर 1994 को मात्र 25 साल की उम्र में ऑपरेशन रक्षक में अपने साथियों को सहायता देते हुए वे आतंकियों की गोली से शहीद हो गए। उन्हें कीर्ति चक्र से सम्मानित किया गया।

सेरेमिक पॉट बनाकर सैनिक कल्याण में सहयोग कैप्टन देवाशीष की मां निर्मला शर्मा अपने इकलौते बेटे और उसके बाद पति जितेंद्र की मौत से पूरी तरह अकेली हो गईं, लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी। बेटे की शहादत और उसकी यादों को सहेजने के लिए 2007 से उन्होंने पॉटरी (चीनी मिट्टी के बर्तन) बनाने शुरू कर दिए। पहले वो भारत भवन जातीं, कलाकारों के साथ अभ्यास करती।
जैसे-जैसे उम्र बढ़ी वे घर पर ही पॉटरी बनाने लगीं। निर्मला शर्मा साल भर पॉटरी बनाती है, फिर इसकी नीलामी कर इससे मिलने वाली राशि सैनिकों के कल्याण में दान कर देती हैं। वे सशस्त्र झंडा दिवस पर हर साल सेना दिवस पर सैनिकों के कल्याण के लिए नीलामी की राशि सौंपती हैं।
पति की मौत के बाद वे अकेली रहती हैं । एक केयरटेकर उनके साथ है। याददाश्त धुंधली पड़ रही है, मगर बेटे का बचपन नहीं भूलती। जब भी वक्त मिलता है वह पचमढ़ी जाती है, जहां बेटे ने अपनी स्कूल की पढ़ाई की और यहीं से उसे फौज में जाने का जज्बा पैदा हुआ था।

अब बात मेजर अजय की मां कुसुम की

मेरा बेटा जिंदा होता तो मेरी ये हालत नहीं होती अजय बड़ा था, छोटे भाई विजय का वह बहुत ध्यान रखता। दोनों भाई एक-दूसरे की जान थे । एक साथ स्कूल जाते। कोई दिन ऐसा नहीं था जब दोनों घर लौटते वक्त रेस नहीं करते थे। मेरा बेटा मुझे समझता था, वो आज होता तो मेरी यह हालत नहीं होती।”
यह कहते हुए कुसुम फूट-फूटकर रोने लगती हैं, पति आरएन प्रसाद उन्हें संभालते हैं, लेकिन आंसुओं की धार पर कोई असर नहीं होता। अस्पष्ट शब्दों में बोलने की कोशिश करती हुई कुसुम बताती हैं, दोनों भाई साथ रहते–खेलते थे, इसी बीच कभी दोनों ने तय किया वे आर्मी में जाएंगे। अजय आर्मी में गया और विजय नेवी में।

बीते 26 साल, एक दिन नहीं थमे मां के आंसू 19 मई 1999 को कारगिल युद्ध में मेजर अजय प्रसाद के शहीद होने के बाद से अब तक 26 साल बीत चुके हैं, लेकिन कोई ऐसा दिन नहीं बीता है जब मां कुसुम को बेटे याद न आई हो। पति आरएन प्रसाद बताते हैं भोपाल गैस त्रासदी के दौरान मैं शाहजहांनाबाद के पास आर्मी में पोस्टेड था।
गैस के असर से कुसुम के वोकल कार्ड पर असर पड़ा। इलाज से कुछ सुधार था, लेकिन बेटे की शहादत के बाद जैसे सबकुछ बदल गया। कुसुम की हालत बिगड़ती जा रही है, पिछले दो साल से तो मानसिक स्थिति भी बिगड़ गई है। इसी बीच अजय की 18 राजपूताना रेजिमेंट ने हमे जोधपुर बुलाया तो पति–पत्नी वहां चले गए, वहां रेजिमेंट ने शहीद बेटे की वर्दी और तस्वीर को खासतौर पर प्रदर्शित कर रखा है।

सेना की अग्रिम पंक्ति का हिस्सा थे अजय पिता आरएन प्रसाद बताते हैं, कि अजय 1986 में इंडियन मिलिट्री एकेडमी से पास आउट होने के बाद मैकेनाइज्ड इंफेंट्री बटालियन में शामिल हुआ। यह सेना में सबसे आगे की पंक्ति होती है। जब सेना को आगे बढ़ने का रास्ता नहीं मिलता तब मैकेनाइज्ड यूनिट को बुलाया जाता है। यूनिट पहाड़ों को काटकर तो कभी नदियों पर पुल बनाकर सेना के लिए रास्ता बनाती है। जिससे बाकी सेना आगे बढ़ती है।
गोली लगी थी जीप चलाकर लेने आया बेटा मां कुसुम बताती हैं, वह आगे बढ़कर जोखिम लेता था। एक बार ऐसे ही मिशन के दौरान एक गोली उसकी पसलियों को किनारे से चीरती हुई चली गई। उसे ग्वालियर लाया गया। हमें बताया गया बेटा घायल है। हम ग्वालियर पहुंचे। वह हमें खुद गाड़ी चलाकर लेने आया था। मैंने उसे डांटा और अपना ख्याल रखने के लिए कहा तो उसने कहा- मां चिंता मत करो मुझे कुछ नहीं होगा।

मेजर अजय के माता-पिता की उम्र अब 80 साल से ज्यादा हो चुकी है।
कश्मीर की चुनौती संभाल लूंगा पिता बताते हैं अजय को जिस मिशन पर भेजा गया उसमें उसे कामयाबी मिली थी। उसे उल्फा उग्रवादियों से निपटने असम राइफल्स भेजा गया। इसके बाद शांति सेना के साथ श्रीलंका गया। वहां लिट्टे की सेना का का डटकर मुकाबला किया। अजय ने तीन बार कमाण्डो ट्रेनिंग ली थी।
वह कश्मीर गया तो मैने कहा था- संभल कर रहना, खतरा है। उसने मुझसे कहा- पापा मैंने उल्फा के उग्रवादियों से लेकर लिट्टे को संभाल लिया, तो इन्हें भी संभाल लूंगा। कश्मीरी भोले हैं पाकिस्तान से आने वाले आतंकी इन्हें भड़काते हैं, डराते हैं, हम इस समस्या को संभाल लेंगे।

मेरे बेटे ने कहा था वायुसेना की मदद लगेगी अजय के पिता आर एन प्रसाद कहते हैं कि कारगिल की परिस्थितियों को देखकर अजय ने अपने साथियों से कहा था कि यहां बिना एयर स्ट्राइक के बात नहीं बनेगी। दो चौकियों पर तिरंगा लहराने के बाद वह आगे बढ़ता जा रहा था। उसी दौरान आईईडी ब्लास्ट में वह शहीद हो गया। पिता कहते हैं मेरे बेटे ने पहले ही कहा था कि हवाई सहायता की जरूरत है। बाद में कारगिल का युद्ध हवाई हमले से ही जीता जा सका।

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कोई डर नहीं…जंग होगी तो हमारे बच्चे तैयार हैं

कटैलापुरा गांव के वीरेंद्र सिंह तोमर कहते हैं, ‘हम तो ये चाहते हैं कि आतंकवाद जड़ से खत्म हो। यदि इसके लिए जंग होती है तो हो ही जानी चाहिए। हमारे गांव के बच्चे तैयार हैं जंग लड़ने के लिए।’ वीरेंद्र के चेहरे पर न तो कोई डर दिखाई देता है, न ही कोई चिंता जबकि उनका बेटा इस समय मोर्चे पर तैनात है। उन्हीं के पास बैठे लोकेंद्र सिंह तोमर भी भारत-पाकिस्तान के बीच बन रहे जंग के हालात से ज्यादा चिंतित नहीं हैं। पढ़ें पूरी खबर…
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