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आदिवासी समाज के सबसे बड़े भगोरिया मेले को लेकर आम धारणा है कि लड़के को कोई लड़की पसंद आ जाए तो उसे पान खाने के लिए देता है। लड़की ने पान खा लिया तो लड़का और लड़की दोनों साथ चले जाते हैं और फिर समाज के लोग मिलकर उनकी शादी करा देते हैं।
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क्या वाकई ऐसा होता है, ये जानने के लिए हम आलीराजपुर जिले के वालपुर पहुंचे। यहां शुक्रवार को साल का पहला भगोरिया मेला लगा। आदिवासी संस्कृति को करीब से देखा। लड़का-लड़की के भागने की आम धारणा कहीं नजर नहीं आई।
युवाओं पर फिल्मी फैशन का रंग जरूर नजर आया। युवक पुष्पा फिल्म के अल्लू अर्जुन के लुक में नजर आए। पहले दिन मेले में शामिल होने के लिए करीब एक लाख आदिवासियों का हुजूम उमड़ा।

वालपुर में हाट के दौरान दिनभर आदिवासी समाज के लोगों की आवाजाही बनी रही।
राज्य सरकार ने हाल ही में इसे राजकीय पर्व घोषित किया है। पढ़िए इस लोकपर्व की सच्चाई और इसके बदलते रंग से रूबरू कराती ये रिपोर्ट-
‘भगोरिया के बारे में जब गलत सुनते हैं तो बुरा लगता है’
फाल्गुनी बयार चरम पर है। मध्यप्रदेश में गुजरात सीमा से लगे मालवा क्षेत्र के आखिरी जिले आलीराजपुर में ये बयार कुछ अलग ही रंगत बिखेरने को तैयार दिखी। आदिम संस्कृति के सबसे बड़े लोक पर्व भगोरिया का पहला मेला शुक्रवार को लगा। आलीराजपुर जिला मुख्यालय से करीब 24 किलोमीटर दूर बसा है छोटा सा गांव वालपुर। गांव की आबादी भले ही दस हजार से ज्यादा की न हो लेकिन यहां शुक्रवार को करीब एक लाख आदिवासी उमड़े। वो भी सिर्फ इस मेले के लिए।
पास के खामड़ गांव से मेले में आई 19 साल की शिवानी से हमने बात की। शिवानी ने बताया कि हर साल भगोरिया मेले में पूरा परिवार साथ आता है। मैं बचपन से ही इस मेले में आती रही हूं। इस मेले के बारे में अफवाह है कि लड़का पान खिलाकर लड़की के सामने शादी का प्रस्ताव रखता है और भगाकर ले जाता है। हकीकत ये है कि मैंने बचपन से लेकर अब तक ऐसा नहीं देखा।

पान खिलाना तो दूर इसकी दुकान भी नहीं दिखी
सुबह के 10 बजे से ही मेले में दुकानें सजने लगीं। कुछ दुकानों में मिठाइयां, नमकीन और पकौड़े दिखे। नाश्ते की दुकान लगाने वाले एक दुकानदार ने हमें बताया कि भगोरिया के लिए हम रात के तीन बजे से ही मिठाइयां, नमकीन, चीला और उड़द दाल के बड़े बना रहे हैं। मेले में इसकी बहुत डिमांड रहती है।
मेले में हमें खाने-पीने, साज-शृंगार, खेल-खिलौनों की दुकानें नजर आईं, लेकिन पान खिलाने को लेकर जो बातें की जाती हैं उसकी कोई दुकान भी नहीं दिखी।
शादी तो दूर शादी की बात तक नहीं होती
40 साल से आदिवासियों के साथ काम करने वाले सामाजिक कार्यकर्ता शंकर तड़वाल ने बताया कि भगोरिया को लेकर जो भ्रांतियां फैलाई गई हैं कि ये प्रणय पर्व है, वेलेंटाइन डे है। ये बिल्कुल गलत बातें हैं।
होली के लगभग एक महीने पहले बास का डंडा लगाते हैं और वो डंडा होली की आग में जलाया जाता है। इस दौरान हमारे समाज में कोई शुभ काम नहीं होता है।

फिल्मी फैशन के रंग में रंगे नजर आए युवक
भगोरिया मेले में युवक फिल्मी फैशन से प्रभावित नजर आए। इस बार युवकों में दक्षिण भारतीय अभिनेता अल्लू अर्जुन का क्रेज भी दिखा। युवकों ने पुष्पा भाऊ लिखे जैकेट पहने। साथ ही काला चश्मा लगाया। जैकेट पर तीर कमान बनाकर आदिवासी संस्कृति से भी जोड़ दिया।

पुष्पा भाऊ लिखा जैकेट पहनकर मेले में शामिल हुए आदिवासी समाज के युवक शीलदार।
साकड़ी गांव से मेले में पहुंचे शीलदार ने कहा, हम मेले के लिए हम पैसा कमाने गुजरात जाते हैं। वहां 11 महीने काम करते हैं। हमने पुष्पाराज की जो टीशर्ट पहनी है वो गुजरात से ही लाए हैं। हम साल भर बाहर पैसा कमाते हैं। एक महीने के लिए भगोरिया उत्सव मनाने आते हैं। होली के बाद वापस चले जाएंगे।

मेले में लड़कियों की ड्रेस एक जैसी, गांव के हिसाब से अलग-अलग रंग
मेले में 15 से 20 साल की उम्र की लड़कियां अलग-अलग समूहों में एक जैसे और एक ही रंग के कपड़े पहनकर आईं। समूहों के हिसाब से रंग अलग दिखे।
मेले में ओजोर गांव की रिंकी आदिवासी अपने ग्रुप के साथ बैंगनी रंग के कपड़े पहनकर आई। रिंकी ने बताया कि हम सब एक ही परिवार के हैं। आपस में पहले से तय कर लेते हैं कि किस रंग का कपड़ा पहनेंगे। भगोरिया में अलग-अलग मोहल्ले, गांव और परिवार के हिसाब से लड़कियां एक तरह के ड्रेस पहन कर आती हैं। ऐसे तैयार होकर आना हमें अच्छा लगता है।

समूह में एक ही रंग के ड्रेस पहने युवतियां नजर आईं।
मेले में शामिल होने कार से आए इंदौर के परिवार
इंदौर से मेले में पहुंची अनुराधा शर्मा ने कहा कि मैं इस मेले में पिछले 4 साल से लगातार आ रही हूं। हम यहां से आदिवासी परंपरा से जुड़े सामान खरीद रहे हैं। सिर्फ वालपुर का मेला पहले जैसा ही लग रहा है, लेकिन बाकी जगह लगने वाले मेले में आधुनिक के रंग देखने को मिलने लगे हैं। यहां आदिवासी लोग होली के लिए खरीददारी करते हैं। हमारे यहां होलिकाष्टक में शुभ काम नहीं होता। यहां के आदिवासियों की भी यही परंपरा है। वो अपने पसंद का सामान खरीदने और नृत्य, पूजा-पाठ करने यहां पहुंचते हैं।
डीएवी यूनिवर्सिटी की प्राध्यापक डॉ. सोनाली ने बताया कि ये मेला एक तरह का साप्ताहिक हाट है, लेकिन होली के एक सप्ताह पहले यह हाट रोमांचक हो जाता है। आदिवासी समाज के लिए ये साल का आखिरी उत्सव होता है, इसलिए होली के एक सप्ताह पहले आदिवासी लोग 7 दिनों तक अलग-अलग जगह लगने वाले मेलों मेंं शामिल होते हैं।

मेला क्षेत्र में ताड़ी प्रतिबंधित लेकिन पीकर आने की मनाही नहीं
मेला क्षेत्र में कलेक्टर अभय अरविंद बेडेकर और एसपी राजेश व्यास खुद मौजूद रहे। इन दोनों की गाड़ियों सहित 40 से ज्यादा प्रशासनिक गाड़ियां खड़ी दिखीं। करीब 70 पुलिसवालों के साथ तमाम प्रशासनिक अमला मेले में मौजूद रहा। पुलिस के लोग लगातार गश्त करते रहे। पुलिस जवानों के साथ मेले में गश्त लगा रहे सोंडवा के थाना प्रभारी गोपाल परमार ने कहा कि ये वालपुर क्षेत्र मेरे थाने में ही लगता है। यहां प्रसिद्ध भगोरिया हाट लगता है। हम पिछले कई दिनों से इसकी सुरक्षा को पुख्ता बनाने में लगे हुए हैं। हमने मेला क्षेत्र में ताड़ी को प्रतिबंधित किया है। हालांकि ताड़ी यहां की संस्कृति से जुड़ा पेय है, इसलिए मेले में ताड़ी पीकर आने की मनाही नहीं है।
आलीराजपुर कलेक्टर अभय अरविंद बेडेकर कहते हैं कि हमने भगोरिया को लेकर सुरक्षा के पुख्ता इंतजाम किए हैं।

पुरुष ही करते हैं ताड़ी का सेवन, महिलाएं दूर रहती हैं
मेले में जितने भी पुरुष आदिवासी मौजूद थे, उनमें से ज्यादातर ने ताड़ी का सेवन कर रखा था। मेले में आए महेश आदिवासी ने कहा, ये हमारी संस्कृति का हिस्सा है और स्वास्थ्य के लिए भी लाभदायक है। हम ताड़ी पीकर ही मेले का आनंद लेते हैं। यहां से जाते वक्त और रात में भी ताड़ी पिएंगे। ताड़ी पीने का सिलसिला 7 दिन चलने वाले भगोरिया मेले के साथ लगातार चलता रहता है। सुरेंद्र सिंह चौहान ने कहा, ताड़ी तो हमारी संस्कृति है, मेले के दिनों में खूब चलती है। महिलाओं ने ताड़ी का सेवन नहीं किया। कुछ महिलाओं से हमने बात की तो उन्होंने कहा कि पुरुष ही ताड़ी का सेवन करते हैं।
शुरुआत की ये कहानी…झाबुआ के भागोर के गांव से शुरू हुआ था भगोरिया
स्थानीय लोगों ने बताया कि झाबुआ-आलीराजपुर के इस पूरे इलाके में 12वीं सदी के आसपास आदिवासी राजाओं का शासन था। उसी दौरान अब के झाबुआ में भागोर गांव के भागोर राजा ने होली से पहले आने वाले हाट में भगोरिया मेला लगवाया था। वहां साल में एक बार मेला लगता था, जिसमें लोग ढोल, बाजे और बांसुरी लेकर जाते थे और नाचते थे। तब से ही इस पूरे क्षेत्र में होली के पहले वाले सप्ताह में जिन जगहों पर हाट होता था, उसे त्योहारिया हाट या भगोरिया हाट कहते हैं।
अब तीन तस्वीरों में देखिए हाट के रंग…

भगोरिया हाट में आदिवासी युवक ने बांसुरी की तान छेड़ी।

समाज के लोगों ने हाथों में बांसुरी लेकर नृत्य किया।

ढोल और मांदल की थाप पर आदिवासी समाज के लोग थिरकते नजर आए।

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