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One had to climb the tree three times a day to extract toddy | ताड़ी निकालने दिन में तीन बार पेड़ पर चढ़ना पड़ता: व्यवसायी बोले- पेड़ की ऊपरी शाखाओं में नुकीले औजार से छेदन करते, फिर मटके लटकाए जाते – Barwani News

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बड़वानी में ताड़ी का सीजन शुरू हो गया है। इसे लेकर झाबुआ और आलीराजपुर जिले की सीमा तक बहार देखी जा सकती है। क्षेत्र के आदिवासी परिवारों के लिए ताड़ी का व्यवसाय आजीविका का प्रमुख स्रोत है। वह अपने खेतों में ताड़ी के पेड़ लगा रखे हैं। एक पेड़ 15-20 साल

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ताड़ी के पेड़ से मटके में ताड़ी को इकट्ठा करता हुआ युवक।

ताड़ी के पेड़ से मटके में ताड़ी को इकट्ठा करता हुआ युवक।

बड़वानी से भवति मार्ग पर ताड़ी की दुकानें लग चुकी हैं। कुलवट, ककराना, छोटी हथवी, उंधाला, वालपुर, सोंडवा और उमराली गांवों में इसका अच्छा उत्पादन हो रहा है। ताड़ी व्यवसायी रेवला वास्कले बताते हैं कि ताड़ी निकालने की प्रक्रिया कठिन है। इसके लिए दिन में तीन बार पेड़ पर चढ़ना होता है। सुबह, दोपहर और शाम को पेड़ की ऊपरी शाखाओं में नुकीले औजार से छेदन किया जाता है। फिर वहां मटके लटकाए जाते हैं। इन मटकों में धीरे-धीरे ताड़ी एकत्र होती है।

ताड़ी को मटके में भरता हुआ युवक।

ताड़ी को मटके में भरता हुआ युवक।

ताड़ पर चढ़ने वाले सुनील ने बताया कि यह मालूम होते हुए कि गिरे तो बचना मुश्किल है, छेदन के लिए दिन में तीन बार ताड़ी के पेड़ पर चढ़ना पड़ता है। इसके बाद जाकर बूंद-बूंद ताड़ी पेड़ों पर टंगे वारियों (मटके) में इकट्ठा होती है। 15-20 साल में पेड़ तैयार होता है। इतने साल बाद ताड़ी हासिल करने में जान का जोखिम भी साफ दिखता है, लेकिन ग्राहकों को यह सस्ते दामों में उपलब्ध हो जाती है। 10-20 साल पहले क्षेत्र में ताड़ी के व्यवसाय पर पूरी तरह समीपवर्ती आलीराजपुर जिले का नियंत्रण हुआ करता था। अब क्षेत्र के आदिवासियों ने ताड़ के वृक्ष अपने खेतों में उगा लिए हैं। इससे आज ये वृक्ष प्रचुर मात्रा में ताड़ी उपलब्ध करा रहे हैं। फलस्वरूप ताड़ी का व्यवसाय कर आदिवासी न केवल समृद्ध हो रहे हैं, वरना वे अपने ही खेतों में उपलब्ध ताजी ताड़ी का आनंद भी उठा रहे हैं।

ताड़ी के पेड़ पर मटके को बांधकर लटकाया जाता है।

ताड़ी के पेड़ पर मटके को बांधकर लटकाया जाता है।

यह काम खतरनाक भी है। पेड़ से गिरने का जोखिम बना रहता है। क्षेत्र में कई लोग ऐसी दुर्घटनाओं का शिकार हो चुके हैं। ताड़ी का उत्पादन जारी रखने के लिए रोजाना छेदन करना आवश्यक है। ऐसा न करने पर पेड़ से ताड़ी का निकलना बंद हो जाता है। जहां एक ओर ताड़ी बाटलों में दी जा रही है। जिससे आदिवासियों सहित अन्य लोग भी बड़े मजे से ताड़ी पीते हैं।

ताड़ी के पेड़ पर चढ़कर रस्सी के सहारे मटके को बांधकर लटकाता गया।

ताड़ी के पेड़ पर चढ़कर रस्सी के सहारे मटके को बांधकर लटकाता गया।

मुकेश ने बताया कि क्षेत्र में ताड़ी प्रचुर मात्रा में होने लगी है, इससे भाव में भारी कमी हो गई है। फिलहाल एक बड़ी बाटल ताड़ी 50 से 70 रुपए में आसानी से मिल रही है। कहा जाता है कि ताड़ी नशे के साथ पेट के रोगों का निदान भी करती है। इसके सेवन से पाचन क्रिया सही रहती है। सुबह के समय उतारकर पी गई ताड़ी मीठी होती है, जो शरीर के लिए ज्यादा मुफीद होती है। शाम के समय पी जाने वाली ताड़ी में खट्टापन होता है व ज्यादा नशा आता है।

ताड़ी का मुख्य मौसम जनवरी से मई तक होता है। फरवरी से मार्च तक आने वाली ताड़ी को वांझिया तथा अप्रैल से मई तक मिलने वाली को फलनियां ताड़ी कहा जाता है। इसके अलावा अन्य महीनों में भी ताड़ी आती है, लेकिन उसमें वह बात नहीं होती। जून से अगस्त तक निंगाल और सितंबर से दिसंबर तक चौरियां ताड़ी आती है। स्वाद व सेहत के लिए वांझिया ताड़ी को सबसे अच्छा माना जाता है।

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