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Shabri was inferior by caste but not inferior by deeds – Dr. Girishanandji Maharaj | शंकराचार्य मठ इंदौर में प्रवचन: शबरी जाति से हीन थी लेकिन कर्म से हीन नहीं थी- डॉ. गिरीशानंदजी महाराज – Indore News

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शबरी जाति से हीन थी लेकिन कर्म से हीन नहीं थी। इसी कारण भगवान श्रीराम ने उसकी भक्ति से प्रसन्न होकर उसे मुक्ति दी। जो भी व्यक्ति अपने गुरु क बातों का विश्वास करके शबरी की तरह पूरी निष्ठा से भगवान को भजता है और दुनिया को तजता है, भगवान उसकी कुटिया में

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एरोड्रम क्षेत्र में दिलीप नगर नैनोद स्थित शंकराचार्य मठ इंदौर के अधिष्ठाता ब्रह्मचारी डॉ. गिरीशानंदजी महाराज ने अपने नित्य प्रवचन में गुरुवार को यह बात कही।

पूर्व जन्म में रानी थी शबरी

महाराजश्री ने बताया- पूर्व जन्म में शबरी एक राजा की रानी थी। साधु-संतों की सेवा दीन-हीन पर दया करने वाली शबरी को उसकी इच्छा अनुसार राजा द्वारा धर्म-कर्म से वंचित किया जाता था। इसीलिए वह मन ही मन बेहद दुखी थी। एक बार राजा उसे कुंभ स्नान कराने प्रयागराज ले गए, तो उसने त्रिवेणी में कूदकर अपने आप को सशरीर मां गंगा का समर्पित कर दिया। दूसरे जन्म में वह एक भील के यहां जन्मी जिसका नाम शबरी रखा गया। शबरी बचपन से ही धार्मिक प्रवृत्ति की थी। जब वह विवाह योग्य हु्ई तो उसका विवाह एक भील युवक से तय किया गया। बरात के दिन बहुत सारे बकरे मंगाए गए। शबरी ने पिता से पूछा- ये बकरे किसलिए मंगाए गए हैं। भील ने कहा बरात के भोजन के लिए। शबरी ने सोचा मेरे कारण कितने जीवों की हत्या होगी, तो वह घर से भाग गई, क्योंकि जीव हिंसा जघन्य अपराध है।

हिंसा करने वाला हमेशा रहता है भयभीत

डॉ. गिरीशानंदजी महाराज ने कहा- हिंसा करने वाला हमेशा भयभीत रहता है, क्योंकि वह अपने स्वार्थ के लिए निरपराधी जीवों की हत्या कर देता है। उस जीव की हत्या करते समय जीव के अंदर भय उत्पन्न हो जाता है। जब व्यक्ति उसका भक्षण करता है, तो वह भय उसके अंदर आ जाता है। भय के कारण उसमें क्रूरता आ जाती है और वह लड़ाकू प्रवृत्ति का हो जाता है। जैसे व्यक्ति सांप को देखकर डरता है, तो वह उसे मारने दौड़ता है। इसी तरह जीव हिंसा करने वाला भी सबसे डरता है।

मातंग ऋषि ने शबरी को दिया था राम नाम का मंत्र

महाराजश्री ने बताया भीलनी शबरी जंगल में रहने लगी। साधु-संतों की सेवा करके छुप-छुपकर उनके खाने के लिए फलों की व्यवस्था कर आती थी। पंपा सरोवर जाने वाले लोगों का रास्ता साफ करती, जिससे कि किसी को कांटे न लगें। एक दिन मातंग ऋषि ने उसे फल रखते देख लिया और कहा कि तुम छुप-छुपकर सेवा क्यों करती हो। वह बोली महाराज मैं जाति से हीन हूं, ऐसा न हो कि ये महात्मा मेरे हाथ से तोड़े फल न खाएं। ऋषि ने कहा बेटी- तुम कर्म से हीन नहीं हो। अब मैं अपने आश्रम के पास ही तुम्हारी कुटिया बना देता हूं। उसी में तुम मेरी बेटी की तरह रहना। तुम्हें पेड़ों पर रहने की जरूरत नहीं रहेगी और उसे राम मंत्र दे दिया। मातंग ऋषि ने अपने अंतिम समय में कहा- बेटी तू राम नाम का जप करते रहना, मुझे तो रामजी का दर्शन नहीं हुए, पर तूझे अवश्य होंगे। हुआ भी वही, एक दिन रामजी शबरी की कुटिया में आए और मीठे बेर खाए।

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