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बालाघाट की चम्मी मेरावी गोंडी भाषा को बचाने के लिए बिना किसी शुल्क के गोंडी भाषा सिखा रही हैं।
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बालाघाट आदिवासी बहुल क्षेत्र है। यहां गोंड जनजाति के लोग बड़ी संख्या में निवास करते हैं। मलाजखंड की रहने वाली चम्मी मेरावी ने बताया कि पहले यहां गोंडी भाषा का विशेष महत्व था। आधुनिकता के प्रभाव से यह भाषा लुप्त होती जा रही है।
चम्मी ने बताया कि पिछले कुछ वर्षों में गोंडी भाषा बोलने वालों की संख्या में कमी आई है। युवा वर्ग इस भाषा से दूर हो रहा है। इसी कारण उन्होंने गोंडी भाषा की कक्षाएं शुरू कीं।
कई गोंड जनजाति के लोग अपनी मूल भाषा नहीं बोल पाते। इससे उन्हें सामाजिक वार्तालाप में कठिनाई होती है। अब उनकी कक्षाओं में बच्चों से लेकर बुजुर्गों तक गोंडी सीखने आ रहे हैं।
चम्मी का कहना है कि गोंडी भाषा के संरक्षण के लिए सरकारी प्रयास भी जरूरी हैं। उन्होंने गोंडी को संविधान की 8वीं अनुसूची में शामिल करने की मांग की है। साथ ही स्कूली पाठ्यक्रम में इसे जगह देने की भी मांग की है। उनका मानना है कि संस्कृति का अस्तित्व भाषा से जुड़ा होता है। गोंडी संस्कृति को बचाने के लिए भाषा का संरक्षण आवश्यक है।

क्लास में गोंडी भाषा सिखाती शिक्षिका।
लोगों को क्लास के माध्यम से गोंडी बोली, सीखा रही मलाजखंड की चम्मी मेरावी बताती है कि गोंडी बोली हर इलाके में अलग-अलग तरह से बोली जाती है। जैसे कि महाराष्ट्र से सटे इलाकों में बोली में फरक आ जाता है। वहीं, छत्तीसगढ़ से सटे इलाकों में अलग ढंग से इस बोली को बोला जाता है। मंडला से सटे इलाकों में अलग तरीके से यह बोली जाती है। लामता, परसवाड़ा, बैहर के क्षेत्रों में बोली में फर्क आ जाता है। बालाघाट जिले के ज्यादातर इलाके में गोंड आदिवासी रहते हैं। ऐसे में यहां के पर कई इलाकों में गोंडी बोली जाती है। इसमें बालाघाट, वारासिवनी, कटंगी, लांजी, किरनापुर सहित अन्य इलाके में भी गोंडी बोली जाती है। इसमें खास तौर से बैहर, मलाजखंड, उकवा, परसवाड़ा और लामता में गोंडी बोली बोली जाती है।
यह किसी संस्था या सोसाइटी से नहीं जुड़ी, वह गोंडी भाषा और संस्कृति से जुड़ी, सामग्री के विक्रय का दुकान चलाती है और गोंडी बोली को बचाने यह पहल कर रही और केवल 50 रुपए महीने में यह सेवा दे रही है।
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