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नई आबादी शास्त्री कॉलोनी स्थित जैन दिवाकर स्वाध्याय भवन में धर्मसभा में जैन साध्वी रमणीक कुंवरजी ने कहा- आजकल मनुष्य का स्वभाव हो गया है कि वह भौतिक सिखों में ही रमा रहता है। भौतिक सुख सुविधाओं का जीवन आपको क्षणिक सुख तो प्रदान कर सकता है लेकिन स्थाय
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जीवन में शाश्वत सुख पाना है तो क्षणिक सुखों का मोह छोड़ना पड़ेगा। जीवन में क्षणिक सुख की चिंता छोड़ शाश्व सुख प्राप्त करने के लिये तत्पर रहना ही ज्ञानी पुरूष का स्वभाव होना चाहिए। व्याख्यान में सुबाहु कुमार का जीवन चरित्र श्रवण कराते हुए कहा- जब हस्तिनापुर के युवराज सुबाहु कुमार के मन में संयम लेने के भाव आए तो उन्होंने सभी क्षणिक सुखों की चिंता छोड़ दी। केवल अपने आत्म कल्याण का चिंतन किया।
सुबाहु कुमार ने प्रभु महावीर से दीक्षा ली और अपना पूरा जीवन जिन शासन की सेवा में समर्पित कर अपने आत्मकल्याण की दिशा में अग्रसर होने का प्रयास किया। साध्वी जी ने कहा- जीवन में अपना आत्मकल्याण करना है तो शरीर पर हमारा जो मोह है उसे छोड़ना चाहिए और आत्मकल्याण के लिये क्या-क्या करना है। इसकी चिंता करना चाहिए।

किसी भी प्राणी को दुख मत दो
संत योग-रूचि विजयजी ने कहा कि कोई भी व्यक्ति किसी भी प्राणी को दुख देता है कष्ट देता है तो वह पापकर्म का बंध करता है तथा जीवन में उसे उस पापकर्म का परिणाम स्वयं कष्ट भोगकर भुगतना पड़ता है। दूसरों को सुख दोगे तो सुख मिलेगा तथा दुख दोगे तो दुख ही भोगना पड़ेगा।
इस सिद्धांत को जीवन में सही तरीके से समझ लो। उन्होंने कहा कि दूसरों को दुख देकर हम क्षणिक रूप से सुख अनुभव करते है। लेकिन वास्तव में हम पापकर्म में बंध कर रहे है। दूसरों को कष्ट देने में हमें कभी भी प्रसन्नता नहीं होना चाहिये। दूसरे के दुख पर यदि हसोगे तो इससे जो पापकर्म का बंध होगा उसके परिणाम स्वरूप आपको भी कष्ट हागा और पापकर्म का परिणाम रोते रोते भुगतना पड़ेगा।
आपने सोमवार को नियमावली शास्त्र का महत्व और सार बताते हुए कहा- जैन धर्म और दर्शन में सात नरक का वर्णन है। नरक गति में गये जीवों को भीषण गर्मी और बहुत अधिक ठंड अनुभव करनी पड़ती है। नरक का जीवन तकलीफ देह अगर ऐसे जीवन से बचना है तो पुण्य कर्म का संचय करो, पाप-कर्म का नहीं।
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