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Passed through 3 cities at night, stayed in Betma for 11 hours | घाट की बजाय लंबा रास्ता चुना; इंदौर मेट्रो कोच के 7 दिन के 900 किमी सफर की कहानी

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इंदौरएक घंटा पहलेलेखक: संतोष शितोले

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इंदौर मेट्रो के लिए पहले तीन कोच गुरुवार को ट्रैक पर उतार दिए गए। इसी महीने ट्रायल रन होगा और उसके बाद दौड़ेगी 90 किलोमीटर प्रतिघंटे की रफ्तार से इंदौर मेट्रो..। पर आप जानते हैं कि मेट्रो के भारी भरकम कोच को लादकर ट्रालों को गुजरात से 900 किमी दूर इंदौर आने में सात दिन क्यों लग गए? दरअसल, इसके पीछे भी लंबी कहानी है।

32 मीटर लंबे पुलर और कोच को लाने के पीछे लंबा-चौड़ा सर्वे करना पड़ा। हर वो बात चिह्नित की गई, जो इसका रास्ता रोक सकती थी। तब जाकर 24 अगस्त को चले ट्राले पर लाए गए कोच 31 अगस्त को इंदौर में उतर सके। इस काम की एक्सपर्ट लॉजिस्टिक कंपनी प्रोग्राम ग्रुप के सीनियर मैनेजर विनोद कुमार और ड्राइवर दिनेश दुबे ने बताई पूरी कहानी..

माछलिया घाट के बजाय राजस्थान वाला लंबा रास्ता चुना

ट्रालों पर लदे कोच की लंबाई 32 मीटर तक हो जाने से गुजरात से इंदौर आने के लिए पिटोल-झाबुआ और माछलिया घाट के बजाय राजस्थान वाला लंबा रास्ता चुना गया। खासकर माछलिया घाट के एरिया से बचाने के लिए ऐसा करना पड़ा। वडोदरा से तीनों कोच लेकर गाड़ियां पहले हिम्मत नगर गईं। वहां से राजस्थान के उदयपुर, चित्तौड़गढ़, नीमच, मंदसौर, जावरा, रतलाम, धार बायपास होते हुए इंदौर पहुंचे। इस सात दिनों में अधिकतर सफर दिन के समय का रहा।

चूंकि उदयपुर और इंदौर समेत तीन शहरों में दिन में ट्रैफिक का दबाव बहुत ज्यादा रहता है इसलिए इन तीनों शहरों से गुजरने के दौरान रात चुनी गई। वैसे कंपनी की गाइड लाइन दिन में सफर करने की रहती है। अगर ट्रैफिक ज्यादा या कई खास कारण हो तो फिर रात का सफर करने का फैसला किया गया था।

ज्यादा ट्रैफिक होने पर बेटमा के पास रुके 11 घंटे

खास यह कि टारगेट के तहत 30 अगस्त की शाम 4 बजे कोच बेटमा तक पहुंच चुके थे। इस दौरान ट्रैफिक के दबाव को देखते हुए वहां (बायपास) पर होल्ड किया गया। फिर रात 11 बजे बेटमा से रवाना हुए और रात ढाई बजे गांधी नगर डिपो पहुंचे। मैनेजर विनोद कुमार व ड्राइवर के मुताबिक इस पूरे लम्बे रुट में कहीं भी किसी भी प्रकार की परेशानी नहीं हुई।

रास्तेभर हर शहर में एक-एक दिन का सफर

हर दिन 120 किमी के टारगेट के तहत 24 अगस्त की रात को सावली से रवाना होने के बाद रास्ते में हर प्रमुख शहर में एक दिन का समय लगा। गुजरात, राजस्थान और मध्य प्रदेश के रास्ते में जो प्रमुख शहर थे वहां सफर तय करने के साथ ट्रैफिक के दबाव ज्यादा होने पर स्टे भी लिया गया। यह सब सर्वे में समझ लिया गया था। इस दौरान 8 से 10 घंटे की ड्राइविंग की गई।

ट्रॉले पर इस तरह से रेडियम पट्‌टी लगाई गई थी। ताकि दूर से ही नजर आ सके। हाइवे पर हादसों से बचने के लिए इस तरह की रेडियम पट्‌टी का यूज किया जाता है।

ट्रॉले पर इस तरह से रेडियम पट्‌टी लगाई गई थी। ताकि दूर से ही नजर आ सके। हाइवे पर हादसों से बचने के लिए इस तरह की रेडियम पट्‌टी का यूज किया जाता है।

15 टोल टैक्स को किया आसानी पार

इस लम्बे कारवां के सफर में गुजरात के पांच, राजस्थान के चार और मप्र के छह टैक्स नाके से गुजरे। कंपनियों द्वारा पूर्व में ही इन टोल टैक्स के संचालकों को सारी स्थितियों से बता दिया था। इस कारण मैनेज हो गया।

तय था कि 15 से 20 किमी प्रतिघंटा की स्पीड से चलना है

24 अगस्त की रात 11 बजे सावली, इण्डिस्ट्रयल सेक्टर से मेट्रो के तीन कोच रवाना हुए। सर्वे के हिसाब से तय कर दिया गया था कि रोजाना 110 से 120 किलोमीटर चलना है। इस हिसाब से रफ्तार 15 से 20 किलोमीटर प्रति घंटा ही रखनी होगी। यही रखी गई। कोच को खींचने के लिए आगे एक पुलर गाड़ी भी चली।

वडोदरा से तीनों कोच लेकर गाड़ियां पहले हिम्मत नगर गईं। वहां से उदयपुर, चित्तौड़गढ़, नीमच, मंदसौर, जावरा, रतलाम, धार बायपास होते हुए इंदौर पहुंचे। गांधी नगर डिपो तक कुल 900 किमी का सफर तय किया। अधिकतम स्पीड 20 किमी प्रति घंटा रखी गई।

वडोदरा से तीनों कोच लेकर गाड़ियां पहले हिम्मत नगर गईं। वहां से उदयपुर, चित्तौड़गढ़, नीमच, मंदसौर, जावरा, रतलाम, धार बायपास होते हुए इंदौर पहुंचे। गांधी नगर डिपो तक कुल 900 किमी का सफर तय किया। अधिकतम स्पीड 20 किमी प्रति घंटा रखी गई।

इंदौर रवानगी से पहले पूरे स्टाफ की आंख-बीपी जांचे गए

खास बात यह कि सावली से रवाना होने के पूर्व हर ड्राइवर, ऑपरेटर व हेल्पर का मेडिकल किया गया। इसके तहत ब्लड प्रेशर, आंखों, शुगर सहित अन्य जांचें कराई गई। इनमें इन सभी की रिपोर्टस नॉर्मल होने पर ही कंपनी ने अनुमति दी।

स्कॉर्ट कार से मॉनिटरिंग, 12 लोगों को डेडिकेटेड स्टाफ

एक पुलर और उससे एक कोच जोड़ने के बाद इसकी लम्बाई 32 मीटर हो गई थी। इस तरह तीन कोच और तीन पुलर वाहनों का कारवां बन गया। नियमों के तहत हर पुलर वाहन में एक अनुभवी ड्राइवर, एक हेल्पर और एक ऑपरेटर तैनात किए गए। कुल नौ लोगों की टीम थी। इनमें ड्राइवरी का जिम्मा दिनेश दुबे, कुलदीप उमरसिंह और दीपक कुमावत के पास था। सर्वे में जिन मार्गों से गुजरना था, उनमें NH-48 रुट (वडोदरा से चित्तौड़गढ़) तक तथा फिर वहां से इंदौर तक NH-27 रुट था जहां से गुजरना था।

इनके अलावा मेट्रो कोचेस के मॉनिटरिंग के लिए स्कॉर्ट कार में सीनियर मैनेजर विनोद कुमार, दो सुपरवाइजर चले। सर्वे में तय स्थानों जैसे डेडिकेटेड पार्किंग, सर्विस रोड आदि पर कहां पार्क करना है, उसका जिम्मा इन्हीं के पास था।

रूट पर सर्वे कराया तब मिली थी कोच रवानगी की अनुमति

कोच रवाना करने से पहले पूरे 900 किमी का सर्वे किया गया, तब वहां से रवानगी दी गई। देखा गया कि जिस रूट से इंदौर तक जाना है, वहां कितने नेशनल और कितने स्टेट हाईवेज पड़ेंगे? सभी हाईवेज की चौड़ाई कितनी-कितनी है। मेट्रो कोच की चौड़ाई 2.9 मीटर तक है। रास्ते में कितने टोल टैक्स व ब्रिज आएंगे। कहीं सड़क निर्माण, रिपेयरिंग और अन्य कोई काम तक नहीं चल रहा। जिस रूट से गुजरते समय स्टे के लिए पॉर्किंग पॉइंट्स कौन से रहेंगे? रास्तेभर में किस समय किस जगह ज्यादा ट्रैफिक रहता है, कब कम? किस हिस्से में दिन में चलना है, कहां से रात में गुजरना है। चाय, भोजन के लिए भी पाॅइंट्स पहले से तय करना पड़े। रास्ते में कहीं कोई हाईटेंशन लाइन, टोल टैक्स की हाईट, पूरे रुट की बिजली क्या है?

एक कोच 45 टन वजनी, फिर भी राह आसान

टीम के मुताबिक मेट्रो के एक कोच 45 टन वजनी है जिसे ज्यादा नहीं कहा जा सकता। इसका कारण है बीते कुछ सालों से नेशनल व स्टेट हाई वे, ब्रिज आदि भारी वाहनों की अधिकतम क्षमता के अनुसार ही निर्माण किए जाते हैं। इसके लिए पूरे रास्ते में राह आसान रही।

मेट्रो सफर के दो प्रत्यदर्शी

ट्रांसपोर्ट का जिम्मा प्रोकॉम कंपनी के पास था। उनके ट्रांसपोर्ट मैनेजर विनोद कुमार भी अपने स्टाफ के साथ कंटेनर के साथ चल रहे थे। उन्होंने बताया कि एक गाड़ी में एक ड्राइवर, एक हेल्पर और एक ऑपरेटर था। दो एस्कॉट कार एक आगे और एक पीछे चल रही थी। आठ से दस घंटे रोज चल रहे थे। लगभग 120 किमी की दूरी एक दिन में तय की गई। तीन राज्यों से होते हुए इंदौर पहुंचे।

ट्रांसपोर्ट का जिम्मा प्रोकॉम कंपनी के पास था। उनके ट्रांसपोर्ट मैनेजर विनोद कुमार भी अपने स्टाफ के साथ कंटेनर के साथ चल रहे थे। उन्होंने बताया कि एक गाड़ी में एक ड्राइवर, एक हेल्पर और एक ऑपरेटर था। दो एस्कॉट कार एक आगे और एक पीछे चल रही थी। आठ से दस घंटे रोज चल रहे थे। लगभग 120 किमी की दूरी एक दिन में तय की गई। तीन राज्यों से होते हुए इंदौर पहुंचे।

बिहार के निवासी दिनेश दुबे तीन में से एक गाड़ी चलाकर लाए। वे कहते हैं कि हम यही काम करते हंै। कई बार मेट्रो कोच ले जा चुके हैं। परेशानी आती है जब कोई घाट आ जाए या ढलान आ जाए। प्रोजेक्ट शुरू होने के पहले ही हम सभी का मेडिकल चेकअप करवाया जाता है। उसके बाद ही गाड़ी चलाने की अनुमति दी जाती है।

बिहार के निवासी दिनेश दुबे तीन में से एक गाड़ी चलाकर लाए। वे कहते हैं कि हम यही काम करते हंै। कई बार मेट्रो कोच ले जा चुके हैं। परेशानी आती है जब कोई घाट आ जाए या ढलान आ जाए। प्रोजेक्ट शुरू होने के पहले ही हम सभी का मेडिकल चेकअप करवाया जाता है। उसके बाद ही गाड़ी चलाने की अनुमति दी जाती है।

प्रोजेक्ट लेट न हो यही खास चुनौती

टीम के ड्राइवर दिनेश दुबे 1998 से ड्राइविंग कर रहे हैं जबकि मेट्रो कोच के लिए 2010 से ड्राइविंग शुरू की थी। वे अब तक ऐसे कई सुरक्षित सफर कर चुके हैंं। उनका कहना है कि प्रोजेक्ट लेट न हो यह अपने आप में सबसे बड़ी चुनौती रहती है। इसके लिए ऐसा नहीं है कि वाहन तेज चलाया जाए। दरअसल इसके लिए प्लान ही बहुत मजबूत बनाया जाता है। इस सफर में कहीं-कहीं हल्की बारिश हुई लेकिन वह हमारे लिए सामान्य स्थिति है। इस बात जरूर पूरा ध्यान रखना पड़ता है कि रास्ते का ट्रैफिक कैसा चल रहा है। कहीं कोई वाहन दुर्घटनाग्रस्त होकर बीच में तो नहीं पड़ा है। मेट्रो के कोच को जो कवर्ड किया जाता है उसमें भी चारों ओर से रेडियम की लाइनिंग होती है ताकि दुर्घटना न हो।

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